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________________ मू० पू० वि० प्रश्रोत्तर २०२ उ०-महाशय ! यह बात केवल मुँह से कहने की है कि हम मूर्ति नहीं मानते, न कि वास्तव में यह सच्ची है। देखिये कभी कोई अनभिज्ञ व्यक्ति अपने अपमानादि के कारण क्रोधित हो या आवेश में आकर कह दे कि हम मूर्ति नहीं मानते हैं “पर जिस को मूर्ति का मार्मिक रहस्य ही मालूम नहीं है ऐसे अबोधात्मा का यह कहना कौन समझदार ठीक मान सकता है । हाँ ! या तो कोई उस कहने वाले के सदृश ही स्वयं अबोध हो या जिस पर पक्षपात का भूत सवार हो वह व्यक्ति क्षण भर के लिए हठधर्मी बन कर खुद मूर्तिमान होते हुए भी मुँह से कह देता है कि हम मूर्ति नहीं मानते हैं । और जब प्रमाण पूछा जाता है तो मट से अपने उन पूर्वजों का नाम लेलेते हैं कि जिन्होंने कुछ न जानते हुए केवल अपने अपमानादि के कारण से मूर्ति नहीं मानी थी। परन्तु क्या यह कह देना समझदारों का काम है ? कदापि नहीं । प्र०-अच्छा तो आप ही बताइये कि हम लोगों ने कब मन्दिर में जाकर मूर्ति पूजा की थी। ___ उ०-क्या मन्दिर में जाना ही मूर्ति पूजा है ? नहीं, हम कहते हैं कि किसी भी हालत में मूर्ति (आकृति ) का अवलंबन करना यही मूर्तिपूजा है और ऐसा प्राणी मात्र को करना पड़ता है। प्र०-आप केवल मुंह से ही वारंवार कहते हैं कि "तुम भी मूर्ति-पूजक हो" परंतु उदाहरण देने में आप नितान्त कमजोर हो। अन्यथा बतलाना चाहिए कि हम किस आकृति का Jain Education International For Private & Personal Use Only ___www.jainelibrary.org
SR No.003204
Book TitleMurtipooja ka Prachin Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundarvijay
PublisherRatna Prabhakar Gyan Pushpmala
Publication Year1936
Total Pages576
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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