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मू० पृ० वि० प्रश्नोत्तर भव से समझने लग गई कि हमारे पूर्वजों के बने बनाये मन्दिर हमारे कल्याण के कारण हैं वहाँ जाने पर परमेश्वर का नाम याद
आता है । ध्यान-स्थित शान्त मूर्ति देख प्रभु का स्मरण हो आता है जिससे हमारी चित्त-वृत्ति निर्मल होती हैं वहाँ कुछ द्रव्य चढ़ाने से पुण्य बढ़ता है पुण्य से सर्व प्रकार से सुखी हो सुखपूर्वक मोक्षमार्ग साध सकते हैं ! अब तो लोग अपने पैरों पर खड़े हैं । कई अज्ञ साधु अपने व्याख्यान में जैनमंदिर मूर्तियों के खण्डन विषयक तथा मंन्दिर न जाने का उपदेश करते हैं तो समझदार गृहस्थ लोग कह उठते हैं कि महाराज पहिले भैरूं भवानी पीर पैगम्बर कि जहाँ मांस मदिरादि का बलिदान होता है त्याग करवाइये । आपको झुक-मुक के वन्दन करनेवालियों के गले में रहे मिथ्यात्वी देवों के फूलों को छुड़वाइये । चौरी, व्यभिचार, विश्वासघात, धोखाबाजी आदि जो महान् कम बन्ध के हेतु हैं इनको छुड़वाइये । क्या पूर्वोक्त अनर्थ के मूल कार्यों से भी जैन मन्दिर में जाकर नवकार व नमोत्थुणं देने में अधिक पाप है कि
आप पूर्वोक्त अधर्म कार्यों की उपेक्षा कर जैन मन्दिर मूर्तियाँ एवं तीर्थ यात्रा का त्याग करवाते हो। महात्मन् ! जैनमन्दिर मूर्तियों की सेवा भक्ति छोड़ने से ही हम लोग अन्य देवी देवताओं को मानना व पूजना सीखे हैं । वरन् नहीं तो गुजरातादि के जैन लोग सिवाय जैन मंदिरों के कहीं भी नहीं जाते हैं। उपदेशकों से आज कई असों से मंदिर नहीं मानने का उपदेश मिलता है पर हमारे पर इस उपदेश का थोड़ा ही असर नहीं होता है कारण हम जैन हैं हमारा जैनमंदिरों बिना काम नहीं चलता है। जैसे-जन्मे तो मन्दिर, व्याहें तो मंदिर, मरें तो मन्दिर, अट्ठाई
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