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________________ १५५ जैन मूर्तियों का सर्वत्र प्रचार लेती हैं । अतः इन्हें जैन तो क्या पर जैनेतर जनता भी सहसा अपना इष्टदेव मान लेती हैं। उदाहरणार्थं देखियेः १ - श्री जगन्नाथपुरी में शान्तिनाथ भगवान् की मूर्ति । २ - श्री बद्रीधाम में भगवान् पार्श्वनाथ की मूर्ति । ३ - कांगड़े के किले में श्री ऋषभदेव की मूर्ति । इस प्रकार महाराष्ट्रादि प्रान्तों में भी बहुत से जैनेतर लोग जैन मूर्तियों को अपने तीर्थधामों में तथा मन्दिरों में स्थापित कर वेष्ठ लाभार्थ पूजन अर्चन करते हैं । कहने की आवश्यकता नहीं कि इन मूर्तियों की स्थापनवेला में जैनों की धर्म भावना कैसी थी, और इन धार्मिक कार्यों से उन पूर्वजों के पुण्य किस प्रकार बढ़ते थे, वे कैसे समृद्धिशाली थे कि लाखों करोड़ों का द्रव्य व्ययकर राजा महाराजाओं के किलों में तथा ऊँचे २ पहाड़ों पर अनेक भव्य मन्दिर बनवाकर अपने मानव जीवन को सफल बना गए । अपने भाइयों को ही इन मन्दिरों का विरोध करते तथा जिन महानुभावों ने अपना तन, मन, और धन अर्पण कर इन मन्दिरों को आत्मकल्याणार्थ बनाया उनकी ही संतान को तीर्थङ्करों की मूर्तियों की विराधना करते देखते हैं तो बड़ा दुःख होता है और इनकी बुद्धि पर तरस आता है । पर जब हम आज क्या - मन्दिर निर्माता हमारे पूर्वजों ने स्वप्न में भी यह विचार किया होगा कि आज हम जिस पसीने की कमाई को पानी की तरह बहा अपने स्वर्ण चाँदी को पत्थरों की कीमत में जुड़ा धर्म की चिर स्थापना के लिए ये दृढ़ स्तंभ रूप मन्दिर बनवा रहे हैं, कल हमारे ही सपूत जन्म लेकर इन मन्दिरों के लिए हमें बेव -- Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003204
Book TitleMurtipooja ka Prachin Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundarvijay
PublisherRatna Prabhakar Gyan Pushpmala
Publication Year1936
Total Pages576
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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