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प्रकरण पांचवाँ
१३२ . पूर्वोक्त अधिकार हमारे उत्तराध्ययन सूत्र के अध्याय १८ तथा आवश्यक सूत्र की टीका में विस्तृत रूप से मिलता है और स्थानकवासी साधु अमोलखर्षिजी ने भी श्रीप्रश्नव्याकरण सूत्रं चतुर्थ अधम्म द्वारा के पृष्ट ११४ पर "सुवरणागुलियए" इस मूलपाठ के हिन्दी अनुवाद में 'वीतभयपाटण के राजा उदाई की सुवर्णगुलिका दासी को उज्जैननगरी का राजा चण्डप्रद्योतन लेगया, इतना उद्धरण तो आपने दे दिया, परन्तु वह इसे क्यों लेगया, कैसे लेगया, और किसके साथ लेगया आदि का नाम तक न लिया, कारण ऐसा करने से उन्हें महावीर की मूर्ति का जिक्र करना पड़ता जो कि श्रापको सर्वथा अनभीष्ट था, किंतु ऐसा करना आपकी संकीर्ण मनोवृत्ति का ही प्रदर्शन है । नहीं तो जब मूलसूत्र में "सुवण्णगलियाए" पाठ में वीतभय, उज्जैन, उदाई और चण्डप्रद्योतन राजा का नाम नहीं होने पर भी आपने टीका से उन्हें लेलिया तब उसी टीका में--
गोशीर्षचन्दनमयीं श्रीमान्महावीरप्रतिमां राजमन्दिरान्तर्वार्तनी चैत्यभवनस्थितां"
इस भगवान महावीर की मूर्ति के, समर्थक पाठ को क्यों छोड़ दिया। शायद आपके पूर्वजों से क्रमशः चली प्रती हुई वृत्ति का ही अापने अनुकरण कर इस सत्य को छिपाया हो तो आश्चर्य नहीं पर जब ऐतिहासिक साधनों से भगवान महावीर के शासन समय में ही मूर्तिपूजा सिद्ध होती है तो फिर ऐसी व्यर्थ तस्कर वृत्ति करने से क्या फायदा हो सकता है। इसे जरा सोचना चाहिये।
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