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मू० पू० वि० प्रश्नोत्तर
२४४ भी दान देने में पाप बतलाते हैं इनका मत तो वि० सं० १८१५ में भीखमजी स्वामी ने निकाला है।
उ०-जैसे तेरहपन्थियों ने दया-दानमें पाप बतलाया वैसे स्थानकवासियों ने शास्त्रोक्तमूर्तिपूजाहोने पर भी उसकी पूजा में पाप बतलाया जैसे, तेरहपन्थी समाजको वि० संवत् १८१५ में भीखमजी ने निकाला वैसे ही स्थानकवासी मत को भी वि० संवत् १७०८ में लवजीस्वामीने निकाला। बतलाइये उत्सूत्र प्ररूपणा में स्थानकवासी और तेरहपन्थियों में क्या असमानता है ? हाँ ! वर्तमान में दया-दान के विषय में हम और आप ( स्थानकवासी) एक ही हैं।
प्र-जब आप मूर्तिपूजा अनादि बतलातेहो तब दूसरे लोग उनका खण्डन क्यों करते हैं ? ।। ____उ०-जो विद्वान् शास्त्रज्ञ हैं वे न तो मूर्ति का खण्डन करते थे और न करते हैं । बल्कि जिनमूर्तिपूजक आचार्यों ने बहुत से राजा, महाराजावक्षत्रियादि अजैनों को जैन-ओसवालादि बनाये, उनका महान उपकार समझते हैं और जो अल्पज्ञ या जैनशास्त्रों के अज्ञाता हैं वे अपनी नामवरी के लिए या भद्रिक जनता को अपने जाल में फँसाए रखने को यदि मूर्ति का खण्डन करते हैं तो उनका समाज पर क्या प्रभाव पड़ता है ? कुछ नहीं। उनके कहने मात्र से मूर्ति माननेवालों पर तो क्या पर नहीं मानने वालों पर भी असर नहीं होता है । वे अपने ग्राम के सिवाय बाहर तीर्थों पर जाते हैं वहाँ निःशंक सेवा पूजा करते हैं और उनको बड़ा भारी आनन्द भी आता है। फिर भी उन लोगों के खण्डन से हमको कोई नुकसान नहीं, पर एक किस्म से लाभ ही हुआ है
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