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मू० पू० वि० प्रश्नोत्तर होता है तभी उसके मण्डन की जरूरत रहती है फिर दोनों समान कैसे हैं ? - प्र. यदि मन्दिर, मूर्ति, शास्त्र एवं इतिहास प्रमाणों से सिद्ध है तो फिर स्थानकवासी खण्डन क्यों करते हैं ? क्या इतने बड़े समुदाय में कोई आत्मार्थी नहीं है कि जो उत्सूत्र भाषण कर वज्रपाप का भागी बनता है ?
उ०-यह निश्चयात्मक नहीं कहा जा सकता है कि किसी समुदाय में आत्मार्थी है या नहीं। पर इस सवाल का उत्तर आपही दीजिये कि दया दान में धर्म व पुण्य, शास्त्र, इतिहास और प्रत्यक्ष प्रमाणों से सिद्ध हैं पर तेरहपन्थी लोग इसमें पाप होने की प्ररूपणा करते हैं क्या इतने समुदाय में कोई भी
आत्मार्थी नहीं है कि खुले मैदान में उत्सूत्र प्ररूपते हैं जैसे आप तेरहपन्थियों को समझते हैं वैसे ही हम आपको समझते हैं आपने मूर्ति नहीं मानी, तेरहपन्थियों ने दया दान नहीं माना, पर उत्सूत्र रूपी पापके भागी दोनों समान ही हैं और स्थानकवासी एवं तेरह पन्थियोंमें जो आत्मार्थी हैं वे शास्त्रोंद्वारा सत्य धर्म की शोध करके असत्यका त्यागकर सत्यको स्वीकार कर ही लेते हैं ऐसे अनेक उदाहरण विद्यमान हैं कि स्थानकवासी तेरहपन्थी सैकड़ों साधु संवेग दीक्षा धारणकर मूर्ति उपासक बन गये और बनते जा रहे हैं। - प्र.-स्थानकवासी और तेरहपन्थियों को आपने समान कैसे कह दिया कारण तेरहपन्थियोंका मत तो निर्दय एवं निकृष्ट है कि वे जीव बचाने में या उनके साधुओंके सिवाय किसीको
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