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________________ मू० पू० वि० प्रश्नोत्तर २४२ फलोदी आदि स्थानों में जहां लौंकों के उपाश्रय हैं, वहां मूर्तिएं अवश्य हैं । बाद विक्रम सम्वत् १७०८ में लौका के यति लवजी ने, मुंहपर दिन भर मुंहपत्ता बांध कर दढिया पन्थ चलाया, जिसे आज हम स्थानकवासो कहते हैं, पर इसके अन्दर से भी सैकड़ों साधु सूत्रों का संशोधन कर, असत्य को त्याग कर संवेग दीक्षा ले मूर्ति के उपासक बने, जिनमें स्वामी बटेरायजी, आत्मारामजी, मूलचन्दजी, वृद्धिचन्द्रजी, श्रादि विशेष प्रख्यात हैं। भान भी कई लिखे पढ़े स्थानकवासी साधु यद्यपि अपने मत को तो नहीं छोड़ सकते पर मूर्ति के विषय में तटस्थ भाव रखते हैं, और जमाने को लक्ष्य में रख, (संवेगी तथा स्थानकवासी) एक पाट पर बैठ व्याख्यान देते हैं । इस हालत में भी स्वच्छन्द, अल्पज्ञ और निरंकुशों की समाज में कमी नहीं जो मौके बेमौके खण्डनाऽऽत्मक साहित्य प्रकट कर शान्त समाज में फूट को गरल (विष ) वमन कर बैठते हैं, और शांत समाज में क्लेश फैलाते हैं, इतना ही नहीं पर देखा जाय तो जैन जाति को पतन के गर्त में गिराने का भी श्रेय इन्हीं को ही है । प्र०-कई लोग जब खण्डन करते हैं तब दूसरे उसका मण्डन करते हैं, यों तो दोनों समान ही हुए ? ___ उ.-जो लोग खण्डन करते हैं उनमें न तो शास्त्रीय प्रमाण हैं और न इतिहास के प्रमाण हैं, केवल मनगढन्त कुयुक्तियाँ लगाकर भद्रिक लोगोंको भ्रम में डाले, उसे सद्धर्म से पतित बनाते हैं, ऐसी दशा में हमारा कर्तव्य है कि हम शास्त्र, इतिहास, एवं युक्ति द्वारा सत्य वस्तुका दिग्दर्शन करवाके, पतनोन्मुखी भद्र जनता को गर्त में गिरने से बचावें। आप ही सोचिये जब खण्डन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003204
Book TitleMurtipooja ka Prachin Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundarvijay
PublisherRatna Prabhakar Gyan Pushpmala
Publication Year1936
Total Pages576
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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