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________________ २४१ मू० पू० वि० प्रश्नोत्तर I भी सच्चा है ? क्या मत चलने से ही उनकी सत्यता जानी जाती है ? कदापि नहीं । जितने अलग अलग मत निकले हैं इनमें अधिकांश अज्ञानियों के ही निकाले हुए हैं न कि विद्वानों के । क्योंकि विद्वान् कभी अलग मत नहीं निकालते । जब हम लाशाह की ओर देखते हैं तो पता चलता है कि लौकाशाह न तो विद्वान् थे और न उनमें इतनी योग्यता ही थी । आज पर्यन्त भी लोकाशाह का कोई भी ग्रन्थ, ढाल, चौपाई, स्तवन, या मूर्त्तिखण्डन विषयक साहित्य ढूंढने से भी उपलब्ध नहीं हुआ है । कई एक लोग कहा करते हैं कि लौंकाशाह ने सूत्रों की दो दो प्रतिएं लिख कर, एक एक यतिजी को दी, और एक एक अपने पास रक्खी। इस प्रकार बत्तीस सूत्र लिखे, और इन्हीं सूत्रों से यह मत चलाया, पर इसमें कोई प्रमाण नहीं मिलता, कारण हजारों वर्ष के पुराणे ग्रन्थ मिलते हैं, तब लौकाशाह को तो केवल ४५० वर्ष ही बीते हैं। उन्होंने ३२ सूत्र यतिजी को दिए और ३२ अपने पास रक्खे, परन्तु उसमें का आज एक पन्ना भी प्राप्त नहीं होता। तो केवल इसे कल्पना के सिवाय और क्या कहा जा सकता है ? लौकाशाह ने यदि कारण विशेष से अपमानित हो, नया मत निकाला भी परन्तु उसकी नींव बहुत कमजोर थी, जिससे उसके १०० वर्ष के बाद ही पूज्य मेघजी स्वामी ने ५०० पाँचसौ साधुओं के साथ जगत्पूज्य आचार्य हीरविजयसूरि के चरणों में आकर जैन-दीक्षा स्वीकार की, बाद में लौंकों के श्रीपूज्य या साधु भी अपने उपाश्रयों में मूर्त्तियों की स्थापना कर सेवा, भक्ति, एवं पूजा करने लग गए, वह पद्धति श्राज तक भी चालू है। जोधपुर, बीकानेर, ( १६ ) – ३७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003204
Book TitleMurtipooja ka Prachin Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundarvijay
PublisherRatna Prabhakar Gyan Pushpmala
Publication Year1936
Total Pages576
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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