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जैन शास्त्रों के प्रमाण
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समझाते हुए भी नहीं समझते हैं उन्हों को क्या गति होगी वह अतिशय ज्ञानी ही जानते हैं ।
कई लोग यह कह उठते हैं कि मुंहपत्ती मुँह पर बॉधनी नहीं कहीं पर हाथ में रखनी भी तो कहीं लिखी है उन महानुभावों के लिये हम यहाँ जैन शास्त्रों के पाठ लिख कर यह बतलावेंगे कि जैनसाधु मुँहपत्ती हाथ में ही रखते हैं यथा .
"तो सूरी दंती दंतुन एहिं पिट्टोवरी कुप्परसं ठिएहिं करेहिं रयहरणंठवित्ता वामकरानामिनाए मुंहपत्ती नंबंति धरितु सम्म उबप्रोगपरो सीसं अद्धावणयकायं इकिकवयं नमुक्कारपुव्वं तिन्नि वारे उच्चारावेई"
ऊपर के पाठ में दीक्षा लेने वाला अपने धर्माचार्य महाराज के समक्ष अपने दोनों हाथोंकी कोणियों को अपने पेटपर स्थापन करके, याने-दोनों हाथ जोड़े हुए जीमणे स्कंध को लगाता हुआ रजोहरण रख्खे और डावे हाथ की अनामीका अंगुली पर मुंह पत्ती को लटकाती हुई धारण करके उपयोग सहित नीचा नमा हुआ एक एक महाव्रत को नवकार सहित तीन तीन दफे उच्चारण करे । इस पाठ में मुँहपत्ती हाथ में रखने का लिखा है, सो जब बोलने का काम पड़े तब उपयोग सहित मुँख को यत्न करके, याने-मुँहपत्नी से मुंख को ढक कर बोले, इसलिये ।
"श्री अङ्गचूलिया सूत्र दीक्षाधिकारे" यदि कइ भाई यह कह दें कि पूर्वोक्त सूत्र बत्तीस सूत्रों में नहीं है इसलिए इस अधिकार को हम नहीं मानते हैं। पर यह केवल अपनी मान्यता का बाधक होने से ही कहा जाता है यदि
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