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________________ ३७७ क्या० ती• मुं० मु० बान्धते थे ? चाहिये कि मुंख बन्धन की खास ज़रूरत होती तो कटिबन्ध के साथ मुंहपत्ती का भी शास्त्रकार उल्लेख करते परन्तु गुह्य प्रदेश और मुख दोनों लज्जा का सदृश्य स्थान नहीं हैं लोक व्यवहार में भी गुह्य प्रदेश को आच्छादित किया जाता है तब मुंह सदैव खुलाही रहता हैं इस सूत्रार्थ से स्पष्ट सिद्ध होता है कि जैन साधुओं को मुखबन्धन की आवश्यकता नहीं हैं। कई अज्ञात लोग भगवती सूत्र श० ९-३३ में तथा ज्ञाता सूत्र अध्ययन पहिला में जमाली और मेघकुमार के दिक्षा समय हजामत करने वाला नाई ने अठपुडा पोतिया से मुंह वान्धने का पाठ देख बिचारे भद्रिक जैनों को बेहका देते हैं कि देखो सूत्र में मुँह बान्धना लिखा है पर उस नाई के पास तो राचोनी भी थी यदि उसी पाठ से मुँहबान्धना साबित किया जाता हो तो उसी पाठानुसार मुंह बन्धन के साथ एक राचोनी भी रखनी चाहिये क्योंकि.यह विधान उस स्थान पर विद्यमान है। कई लोग सोमल ब्राह्मण जो पहले भगवान् पार्श्वनाथ का श्रावक था बाद उसने तापस्वीत्व स्वीकार कर मुंह पर काष्ट की मुंहपत्ती हमेशां नहीं पर कुछ समय ( उस मत की विधि ) के लिये मुंह पर बान्धता था ( यह क्रिया वेदान्तियों में शंखमत की है ) और इस प्रकार काष्ट की मुँहपत्ती बान्धने वाले को शास्त्रकार स्पष्ट शब्दों में मिथ्यात्वी बतलाया है फिर भी सोमल ब्राह्मण को देवताने समझाया वह चार दिन नहीं समझा पर पांचवे दिन ठीक समझ कर उस तापसी दीक्षा एवं काष्ट की मुंहपत्ती का परित्याग कर दिया और उस मिथ्या सेवन की आलोचना नहीं की जिससे वह मर कर शुक्रनामक विरोधी देव हुश्रा पर जिन्हों को सैकड़ों वर्ष हुए Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003204
Book TitleMurtipooja ka Prachin Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundarvijay
PublisherRatna Prabhakar Gyan Pushpmala
Publication Year1936
Total Pages576
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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