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मुंहपत्ती का रहस्य
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उधर देख के कृतकार्य हो जाते हैं तब मूर्तिपूजक समाज में कोई भी क्रिया करो, पर प्रत्येक क्रिया के प्रारम्भ में मुँहपत्ती प्रतिलेखन द्वारा अशुभ भावना को हटा कर शुभ भावना द्वारा आत्म-विशुद्धि करके ही क्रिया क्षेत्र में प्रवेश किया जाता है। .
अब जरा ध्यान लगा के जैनियों की मुंहपत्ती की प्रतिलेखन क्रिया को सुन कर समझने का कष्ट करें । . "मुंहपत्ती का प्रतिलेखन करते समय की विधि में सर्वप्रथम मुँहपत्ती खोते ही अनुभव से विचार किया जाता है कि "सूत्र अर्थ सच्चा श्रद्धहू. कामराग, स्नेहराग, दृष्टि गग, परित्याग करूँ। मिथ्यात्व मोहनीय, सम्यक्त्व मोहनीय, मिश्रमोहनीय का परित्याग करूँ। कुगुरु. कुदेव, कुधर्म का परित्याग करूँ। सुगुरु, सुधर्म, सुदेव, अंगीकार करूँ। ज्ञानविराधना, दर्शन विराधना, चारित्र विराधना का परित्याग करूँ। ज्ञान, दर्शन, चारित्र अंगीकार करूँ। मनदंड, वचनदंड, कायदंड का परित्याग करूँ। मनगुनि, वचनगुप्ति, कायगुप्ति, अंगीकार करू" इस प्रकार ये २५ बोल कह के मुँहपत्ती का प्रतिलेखन करने के बाद मुंहपत्ती द्वारा शरीर का प्रतिलेखन किया जाता है । तद्यथाः
कृष्ण, नील, कापोतलेश्या, ऋद्धिगारव रसगारव, साता गारव, मायाशल्य, निधानशल्य, मिथ्या दर्शन शल्य, हास्य रति, श्रारति, भय, शोक, जुगुप्सा, क्रोध, मान, माया, लोभ पृथ्वी, अप, तेज व यु.वनस्पति और त्रसकाय की विराधना इन २५ बोलों का परित्याग करूx
x इनका विधान किसी जैनमुनियों से हासिल करे कि कौन से बोल किस प्रकार किस स्थान बोला जाता है।
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