________________
३५७
क्या ती० मुं• मुं० बाँधते थे . इस प्रकार उपयुक्त इन ५० बोलों द्वारा आत्मा को निर्मल पवित्र और विशुद्ध करके, बाद में श्रावक सामायिकादि क्रियाएँ करते हैं, और साधु “गोचरी' जाना, पञ्चख्खाँण, पारना, संथारा पौरसी करना, आदि जो क्रियाएँ करते हैं उस समय इस प्रकार भावना पूर्वक मुँहपत्ती का प्रतिलेखन करते हैं। समझे न ।
अब यह बात हम हमारे पाठकों पर छोड़ देते हैं कि मुँह पत्ती का महत्त्व, सत्कार, और उपयोग किस समुदाय में विशेष है ? इसे स्वयं सोच ले । अब रहा खुले मुँह बोलने का सवालखुले मुंह बोलने की कोई भी समुदाय श्राज्ञा नहीं देता । यदि कोई व्यक्ति प्रमाद के कारण खुले मुंह बोला हो तो आलोचना कर शुद्ध हो सकता है । पर इसका अर्थ यह नहीं कि किसी को खुले मुंह बोलता देख आप सदा सर्वदा के लिए दिन भर मुँह पत्ती में डोरा डाल मुंह पर बांधले । यदि ऐसा ही है तो चरर का पल्ला इधर उधर उड़ता देख उनसे वायुकाय के जीवों की हिंसा को कल्पना कर कोट, कुर्ता, और चोलपटे के झपेटे में वायुकाय के जीवों को मरता देख, धोती, पाजामा और शिर के बाल इधर उधर होने से असंख्य वायुकाय के जीवों की हत्या का विचार कर पगड़ी, साफा , टोप और टोपी ही क्यों न पहनली जाय, जिससे इन असंख्य वायुकाय के जीवों का बचाव सहज ही में होजाय । यदि यह कहा जाय कि ऐसा करने से साधु को कुलिङ्ग रूपी मिथ्यात्व का सेवन करना पड़ता है जो वायुकाय के जीवों की विराधना से भी घोरतर पाप का कारण है तो फिर मुँहपत्ती में डोरा डाल मुँहपर बांधने से भी कुलिङ्ग रूपी मिथ्यात्व का
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org