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मू० पू० वि० प्रश्नोत्तर
लगा के कहना कृष्णलेश्या नोललेश्या, कापोत लेश्या परिहरु | मुँहपर मुँहपती लगाके ऋद्धिगारव, रसगारव सातागारव, परिहरू । हृदयपर लगा के मायाशल्य, निदानशल्य, मिथ्यादर्शनशल्य, परिहरूँ । जीमखान्धे पर क्रोध मान डाबेखान्धेपर माया, लोभ परिहरू । डाबा हाथकी बाँह पर हास्य, रति, रति, एवं जीमणे हाथ की बाँह पर, शोक, भय, जुगप्सा, परिहाँ । डावे पैर पर पृथ्वी, अप, तेड, एवं जीमणे पग पर, वायु, वनस्पति, और त्रस काय की विराधना परिहरूँ । इस प्रकार २५ बोलों का चिन्तवन मुँहपत्ती और २५ बोलों का चिन्तवन शरीर के कुल ५० बोलों का चिन्तवन करने से मुँहपत्ती का प्रतिलेखन होता है और सामायिक लेना, पारना, गुरुवन्दनकरना, प्रतिक्रमण करना, पच्चखानलेना, पारणा, चैत्यवन्दन संस्तारा पौरुषी श्रालोचनादि सब क्रियाओं की आदि में पूर्वोक्त ५० बोलों का चिन्तवन द्वारा मुँहपत्ती का प्रतिलेखन करना शास्त्रकारों ने बतलाया है ।
प्र० - हमने तो यह विधान आज ही सुना है और यह है भी उत्तम ?
उ०- आपने अभी जैनों का घर देखा ही क्या है ? ऐसी २ तो अनेक क्रियाएं हैं कि जिससे आत्म-कल्याण का सुगमता पूर्वक साधन हो सकता है। जैनों में जितनी क्रिया हैं वह सब उपयोग पूर्वक विवेक के साथ करने की है।
प्र० - आप क्रिया के समय ठवणी पर क्या रखते हो १ उ०- श्राचार्य महाराज की स्थापना ।
प्र० यह क्यों ?
उ०- विना स्थापना, क्रिया करना अशुद्ध है । कारण प्रत्येक
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