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तीन चित्रों का विवरण
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प्रश्न होता है कि यदि किसी सहृदय भक्त को सिद्धों की या अपने श्राचायों की आकृति देख वन्दना करने का भाव उमड़ पड़े तो उसे लाभ होगा या मिथ्यात्व लगेगा ? | शास्त्रकारों के मतानुसारतो मूर्त्ति का निमित्त पाकर सिद्धों को 'नमोत्थूणं' देने से बड़ा भारीलाभ ही है । पर स्थानकवासी भाई इस प्रकार सिद्धों को मूर्ति के सामने 'नमोत्थूणं' देने में क्या समझते होंगे ? मेरे खयाल से तो वे भी इस बात को बुरा नहीं समझेंगे, क्योंकि इस बात को बुरा समझते तो सिद्धों की मूर्ति का चित्र कभी नहीं देते ?
मित्यात्व का पोषण
प्रसंगोपात यहाँ पर मैं मेरे पाठकों को यह बतलादेना चाहता हूँ कि आधुनिक कई मन चले स्थानकवासी साधुओं ने अपनी पुस्तकों में बिना प्रमाण यानि कपोल कल्पित अनेक चित्र ऐसे छपवाये हैं कि जिससे जैन धर्म और जैन तीर्थङ्करों की अन्य धर्मियों द्वारा हांसी एवं श्रवज्ञा करवा के करने का दुःसाहस किया है उन चित्रों से नमूना के ज्यों के त्यों यहाँ दे दिये जाते हैं जो एक तो भगवान् महावीर के मुँह पर मुँहपत्ती बंधी हुई और दूसरा मुनिगज सुखमाल के मुँह पर मुँहपत्ती और उपर सिद्धों की मूर्ति का है जो पाठक इस चित्र में देख सकते हैं ।
मात्र दो चित्र बतौर
( १ ) चित्र पहिला - भगवान् महावीर के मुँहपर डोरा वाली मुँहपत्ती का - आत्मबन्धुओं ! समुदायिकता और संकीर्णता की भी कुछ हद हुआ करती है पर आपतो बड़ी हिम्मत कर उसके ही परे चले गये जरा आप निर्पक्ष हो अपने ही हृदय पर हाथ रख ठीक विचार करावें कि आपके चित्रानुसार भगवान्
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