________________
३६१
क्या० ती. मुं. मुं० बान्धते थे ? लाभ तो भक्त जनों की भावना पर ही निर्भर है। यह समझना दुर्लभ नहीं है कि भाव तीर्थङ्करों में गुण हैं, वे आदर्श हैं छदमस्थ मनुष्यों के दृष्टिगोचर नहीं होते हैं। छदमस्थ लोक तीर्थङ्करों के गुणों का आरोप तीर्थङ्करों के शरीर में करके ही उनको वन्दनादि कर लाभ उठाते हैं, इसी भाँति मृत्ति में भी तीर्थकरों के गुणों का आरोप कर भक्त जन लाभ उठा वे तो किसी प्रकार से अनुचित नहीं हैं । देखिये:-अशरीरी सिद्ध हैं, उनका रूप रंग नहीं हैं, उनके गुण आदर्श हैं, छदमस्थों के नजर नहीं आते हैं, फिर भी अपने मन मन्दिर में उनके गुणों की कल्पना (मूर्चि) स्थापन कर, वन्दन पूजन करते हैं। आदर्श गुणों पर मन स्थिर रहने की अपेक्षा, मूर्ति में गुणों का अरोप कर उस पर मन स्थिर रखा जाय तो अधिक समय तक स्थायी रह सकता है ।
हमारे स्था० साधुओं ने अपनी पुस्तकों में जीते हुए साधुओं के मुँह पर मुँहपत्ती बँधाई है, पर जब वे वहाँ से काल कर सिद्धों में गए हैं तो उन्हें पहचानने के लिए वहाँ सिद्धों को मूर्ति विराजमान की गई है, जैसे कि आजकल मन्दिरों में सिद्धों को मूत्तिएँ हैं, इससे इतना तो सिद्ध जरूर होता है कि बिना मूर्ति हमारे स्था० भाई भी सिद्धों को पहिचान नहीं सकते हैं । अर्थात सिद्धों को वन्दना करने को मूर्ति की आवश्यकता तो उन लोगों को भी है और विना मूर्ति के इनका काम चल नहीं सकता, किन्तु साथ में श्रापको यह भय भी है कि हमारी पुस्तकों में हमारे हाथों से सिद्धों की मूर्तिओं की आकृति दी हुई देख कर कहीं लोग मूर्तिपूजक न बन जायँ, इस भय से चित्र के साथ यह ऑर्डर भी लिख दिया है कि ये चित्र मात्र देखने के लिए हैं न कि वन्दना करने के लिए । परन्तु यहाँ एक यह
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org