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मू० पू० वि० प्रश्नोत्तर
प्र० - यदि जिन-प्रतिमा जिन-सारखी है तो फिर उस पर पशु पक्षी वीटें क्यों कर देते हैं ? उनको अर्पण किया हुआ नैवेद्य आदि पदार्थ मूषक मार्जार क्यों ले जाते हैं तथा उन्हें दुष्ट लोग हड्डियों की माला क्यों पहना देते हैं ? । उनके शरीर पर से आभूषण आदि चोर क्यों ले जाते हैं, एवं मुसलमान लोगों ने अनेक मन्दिर मूर्तियाँ तोड़ कैसे डालीं ? इत्यादि
उ०- हमारे वीतराग की यही तो वीतरागिता है कि उन्हें किसी से राग-द्वेष या प्रतिबन्ध का अंश मात्र भी नहीं है । चाहे कोई उन्हें पूजे या उनकी निन्दा करें, उनका मान करें या अपमान करें, चाहे कोई द्रव्य चढ़ा जावे, या ले जावे, चाहे कोई भक्ति करे या शातना करें । उन्हें कोई पुष्पहार पहिना दें या कोई अस्थिमाला आकर गले में डाल दें इससे क्या ? वे तो राग द्वेष से परे हैं उन्हें न किसी से विरोध है, और न किसी से सौहार्द, वे तो समभाव हैं, देखिये - भगवान् पार्श्वनाथ को कमठ ने उपसर्ग दिया और धरणेन्द्र ने भगवान् की भक्ति की, पार्श्वनाथ का तो दोनों पर समभाव ही रहा है। कहा है
“कमठ्ठे धरणेन्द्रे च स्वोचितं कर्म कुर्वति । प्रभो स्तुल्य मनोवृत्तिः पार्श्वनाथ श्रियेऽस्तुवः ॥"
पर प्रभु
जैसा कि
इसी प्रकार भगवान् महावीर के कानों में गोवल ने खीलें ठोकीं, वैद्य ने खीलें निकाल लीं, परंतु भगवान् का दोनों पर समभाव ही रहा, जब स्त्रयं तीर्थकरों का समभाव है तो उनकी मूर्तियों में तो समभाव का होना स्वाभाविक ही है आखिर वे मूर्तियाँ भी तो उन वीतराग देवों की ही हैं और हमारे देव वीतराग होने की
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