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मूर्तिपूजा की प्राचीनता
अर्थात् मूर्तिपूजा की वास्तविकता को ठीक तरह न समम कर स्वयं मूर्ति की ओर ही अपनी क्रूर दृष्टि फेंक दी। ऐसा करने वालों में सब से पहला नम्बर पैगम्बर मुहम्मद साहब का था जो कि विक्रम की सातवीं शताब्दी में अरबिस्तान में पैदा हुए थे । तत्पश्चात् करीब ९०० नव सौ वर्षों के बाद उन अनार्यों का प्रभाव प्रज्ञ आर्यों पर भी पड़ा और उन आर्यों ने अनार्यो. चित धृष्टता कर मूर्तिपूजा का विरोध किया। परन्तु मूर्तिपूजा का सिद्धान्त इतना विशाल और विश्वव्यापी था कि सहज में उसकी सारी जड़ उखड़ न सकी किन्तु काल पाकर अपनी अनिन्द्य लोक-प्रियता के कारण पुनः पनपती रही। प्रत्यक्ष में भी यदि आज देखा जाय तो बिना मूर्ति के, क्या व्यवहारिक और क्या धार्मिक कोई भी काम चल नहीं सकता है, तदर्थ किसी भी रीति से क्यों न हो पर मूर्ति को तो सब संसार सिर मुकाता ही है। "गुड़ खाना और गुलगुलों से परहेज रखना" उस जमाने में जारी था, क्योंकि ज्ञान का भानु उस वक्त अस्ताचल पर था। जनता के हृदयों में अज्ञानाऽन्धकार छाया हुआ था। संशोधक गाढ़ निद्रा में सो रहे थे और इतिहास के साधन लुप्त नहीं किन्तु भूगर्भ में गुप्त जरूर थे अतः यह सब कुछ होना जरूरी था। परन्तु आज तो जमाना बदल गया है। आज का युग इतिहास का युग है। श्राज शास्त्रीय प्रमाणों की अपेक्षा ऐतिहासिक प्रमाणों पर सभ्य समाज का अधिक विश्वास है। (इसका स्पष्ट कारण हम पूर्व में लिख पाए हैं) अतएव आज मैं इस प्रकरण में ऐतिहासिक प्रमाणों द्वारा मूर्तिपूजा की प्राचीनता बतलाने की कोशिश करूँगा।
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