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________________ प्रकरण पांचवा ११८ विवेचन कोई कीमत नहीं रख सकता, किन्तु इतिहास सर्व देशीय होने से इसकी प्रमाणिकता की मुहर सबके ऊपर जबरन जोड़ दी जाती है। बस, इसी कारण से इतिहास का आश्रय ले, आज हम डंके की चोट यह सिद्ध करेंगे कि जिस मूर्तिपूजा के नाम पर आज के कुछ अज्ञ अपनी अज्ञता जाहिर करते हैं वह कितनी सदियों से हमारे देश में प्रतिष्ठित है जिनके लिये शास्त्रीय सत्य का ऐतिहासिक साधन साक्षी है, और ऐतिहासिक साधनों में प्राचीन शास्त्र भी अन्यतम साधन हैं, अत: इतिहास लिखने में शास्त्र भी उपयोगी एवं उपादेय हैं। मूर्तिपूजा का इतिहास आर्य-धर्म के इतिहास के साथ ही साथ प्रारंभ होता है किन्तु जब अनार्यों ने श्रार्यों का अनुकरण किया तो मूर्ति विषयक ज्ञान के लिये भी कुछ प्रयास करना पड़ा परन्तु वे इसमें अपनी जड़ बुद्धिवश सफल नहीं हो सके, अतः समयान्तर में कई एक अनार्यों ने मूर्तिद्वारा अपने भौतिक स्वार्थ साधनार्थ नाना प्रकार के अत्याचार करने शुरू कर दिये, यद्यपि यह मार्ग शास्त्र विरुद्ध तथा नैतिकता से परे था। किन्तु "संसर्गजाः दोषाः गुणाः भवन्तिः" के सिद्धान्तानुमार इसका दूषित प्रभाव कुछ आर्यों पर भी पड़ा और वे भी लोभवश हो धर्म को ओट ले ( देव देवियों को पशुबलि देना आदि) अनेक अनर्थ करने लगे। और जब यह मात्रा ज्ञान शून्य अनार्यों में जड़ पकड़ने लगी तथा साथ ही विवेक भ्रष्ट कुछ नामधारी आर्य भी इसे सींचने लगे तो उस हालत में इन अत्याचारों को रोकने, या बिगड़ी को सुधारने की किसी ने हिम्मत नहीं की, पर प्रत्युत मूल कारण को भूल, खास कार्य को ही निभूल करने का दुःसाहस किया, Jain Education International For Private & Personal Use Only ___www.jainelibrary.org
SR No.003204
Book TitleMurtipooja ka Prachin Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundarvijay
PublisherRatna Prabhakar Gyan Pushpmala
Publication Year1936
Total Pages576
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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