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________________ ३३५ मू० पू० वि० प्रश्नोत्तर - प्र०-पृष्ट ३३४ पर हमारे पूज्य जी महाराज ने लिखा है: "अन्नउत्थिय परिग्गहियाणिं अरिहन्त चेइयाणिवा वंदित्त एवा नमंसितए वा" इस पाठ का हिन्दी अर्थः-अन्य यूथिकों द्वारा स्वीकृत अर्थात् अन्यतीथिक साधुओं में मिले हुए अरिहन्त चैत्य ( जैन साधुओं) को तथा उपलक्षण से अवसन्न पार्श्वस्थ आदि को भी वन्दन नमस्कार करना नहीं कल्पता है।" तब फिर आप वहाँ चैत्य का अर्थ जिन-प्रतिमा क्यों करते हो ? उ०-इसके लिए अधिक कहने की आवश्यकता नहीं है क्योंकि मैं इस प्रश्नोत्तर माला में पहिले ही खुलासा कर चुका हूँ। दूसरा “मूर्तिपूजा का प्राचीन इतिहास” नामक पुस्तक में आनन्द श्रावक के अधिकार में प्रामाणिक प्रमाणों द्वारा अच्छी तरह से इस बात का विवेचन कर दिया है। फिर भी आप का विश्वास यदि पूज्यजी महाराज पर ही हो तो आपके पूज्यजी के भी बड़े पूज्यजी (जो इस अलग समुदाय के स्थापक हैं) श्रीहुकमीचन्दजी महाराज ने अपने हाथों से २१ सूत्र लिखे हैं जिनमें आपने “ उपासकदशाङ्ग सूत्र" भी लिखा है, उसमें पूज्यजी महाराज ने निवालिस (निर्मल) हृदय से लिख दिया कि अन्यतोत्थियों से ग्रहण की हुई जिन-प्रतिमा आनन्द श्रावक को वन्दन नमस्कार करना नहीं कल्पता है । वह हस्तलिखित प्रति बहुत काल तक पूज्यश्रीलालजी महाराज के पास रही थी बाद में स्वामी डालचन्दजी ने जब ब्यावर में स्थिरवास किया तब पूज्यजी ने वह प्रति स्वामी डालचन्द जी महाराज को दे दी थी। कृपा कर आप और आपके पूज्यजी महाराज, पहिले उस सूत्र को प्रति को देख लें ? Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003204
Book TitleMurtipooja ka Prachin Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundarvijay
PublisherRatna Prabhakar Gyan Pushpmala
Publication Year1936
Total Pages576
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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