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मू० पू० वि० प्रश्नोत्तर
नहीं रहा कि वे मूर्तिपूजक हैं या नहीं क्योंकि लौंकाऽनुयायी तो अब खुलेआम अपने उपाश्रयों में साक्षात् भगवान् तीर्थङ्करों की मूर्त्तिएँ स्थापित कर उनकी द्रव्य भाव से पूजा करते हैं, तथा तीसरा नंबर है स्थानकवासियों का सो उनमें भी मूर्त्तिएं, गुरु पादुकाएँ, समाधिएँ और साधु-साध्वियों के फ़ोटो पूजे जाते हैं। देखो ग्राम गिरि ( मारवाड़ ) में स्था० साधु हर्षचंद जी की तथा गांव सादड़ी ( मारवाड़ ) में स्था० ताराचंदजी की पाषाण मय मूर्ति अष्ट द्रव्य से पूजी जाती है । आगरा में स्था० साधु रत्नवन्दजी की पादुकाओं की पूजा होती है । बड़ोद व अंबाला में स्थानक० साधुओं की बहुत काल से समाधिएँ हैं जो अत्यादर से पूजी जाती हैं, वहां हर साल मेला भरता है और हजारों लोग एकत्र होते हैं क्या यह मूर्तिपूजा का रूपान्तर नहीं है ? । अब रहे तेरहपन्थी लोग, सो वे भी इस मूर्त्तिपूजा से बिलकुल वश्चित नहीं रहे हैं। अभी एक ताजा उदाहरण लीजिए, कि इसी वर्ष गांव गंगापुर ( मेवाड़ ) में तेरह पन्थी पूज्य कालू रामजी स्वामी का देहान्त हुआ था तब आपके भक्त लोगों ने उस मृत शरीर ( शत्र) का स्वर्ण रजत ( चांदो ) निर्मित पुष्पों से पूजन किया । इस उत्सव में भक्त लोगों ने हजारों रुपये खर्च कर अपने माने हुए ( मान्य) धर्म की उन्नति समझो। अपने पूज्यजी के दाह स्थान पर एक स्मारक ( चबूतरा ) बनाया । हम पूछते हैं कि अब उस स्थान पर जो तेरहपन्थी साधु, साध्वियों श्रावक और भक्ताखिएँ जायेंगी उनका दिल क्या इस स्मारक को देख भक्ति भाव से द्रवित नहीं होगा ? क्या उसे देख इन भक्तजनों को पूज्यभाव या स्मरण नहीं आएगा कि इस स्थान पर
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