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( २० ) इस ममेले में बहुत अर्सा गुजर गया। इस बीच में देव दुर्विणक से वि० सं० १९५८ में श्राप के पिताश्री का देहान्त हो गया। फिर तो क्या था सारे कुटुम्बका भार आपके ऊपर आ पड़ा और इच्छा के न होते हुए भी केवल नैतिक कर्तव्यवश श्राप फिर कुछ काल के लिये सांसारिक बने । तथापि आपका अन्तःकरण हर समय दीक्षा के लिए रज्जू रहता था। पिताश्री के देहान्त को पांच वर्ष बीत जाने के बाद आपके सुकमों का फिर उदय हुआ और वि० सं० १९६३ में आपने २६ वर्ष की युवक वय में माता, स्त्री, भाइयों आदि कुटम्ब का त्याग कर स्थानकवासी पूज्य श्रीलालजी महाराज के उपदेश से दीक्षा ग्रहण की और ७ वर्ष तक धार्मिक शास्त्र याने ३२ सूत्रों का और ३०० थोकड़ों का यथावत् अध्ययन किया। आपकी चढ़ती जवानी, उत्कृष्ट वैराग्य, विशालज्ञान, मधुर रोचक एवं प्रभवोत्पादक व्याख्यान की छटादि मौलिक गुणों से स्थानकवासी समाज में सर्वत्र प्रतिष्ठा और भूरि भूरि प्रशंसा हो रही थी। यदि एक वार आपकी अमृतमय देशना श्रवण करले तो उनको पुनः पुनः श्रवण करने की इच्छा सदा बनी रहती है और श्रोतागणों के अन्तःकरण से स्वयमेव इसके लिए प्रशंसा के वाक्य निकल पड़ते थे। पूज्य श्रीलालजी महाराज के बाद उनकी पूज्य पदवी के उत्तराधिकारी भी श्राप ही थे, किन्तु आपने जब अनवरत शास्त्रावलोकन के कारण शास्त्रों में मूर्ति विषयफ पाठ देखे और इस विषय का रहस्यमय अभ्यास किया तो ज्ञात हुआ कि स्थानकवासी मत शास्त्र-सम्मत मूर्तिपूजा को नहीं मानते हैं । और मूर्ति नहीं मानने से ही अनेक सूत्रों के अर्थ बदलने पड़ते हैं और सूत्रों पर की नियुक्ति टीका चूर्णि भाष्य
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