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तथा पूर्वाचार्य प्रणीत प्रन्थों के मानने में इन्कार करना पड़ता है । यही नहीं किन्तु जिन आचायों का हमें परमोपकार मनना चाहिये उलटी उनकी निन्दा कर कर्म बन्धन करना पड़ता है । इनके अलावा स्थानकवासी लोगों ने श्रागमानुसार व पूर्व परम्परागत आचार व्यवहार और क्रियाकर्म में पूर्णतः परिवर्तन कर अनेक निन्दनीय प्रवृत्तिएँ गढ़ डाली हैं । अस्तु उक्त विषय में अपने लगातार दो वर्ष तक खूब चर्चा की परन्तु किसी ने आपके मन का सन्तोष जनक समाधान नहीं किया । समाधान नहीं करने का केवल मात्र कारण यही था कि इस कल्पित मत में कोरी अन्ध परम्परा ही चली आ रही है । इस मत में करने योग्य क्रियाओं का ही कोई सम्यक श्रावकों के सामायिक, पौसह, प्रतिक्रमण तथा प्रत्याख्यान का पूरा पता है । इस मत में यदि कोई किसी से कुछ प्रश्न पूछे तो उसका समाधान करने वाला भी कोई नहीं है । अतः जिस के दिल में जो आ जाता है वह उसे ही कर गुजरता है । इन सब का पूर्णत: विचार कर लेने पर भला कोई सुज्ञ पुरुष कब तक कल्पित अन्ध परम्परा में रहना अच्छा समझेगा ? । बस इसी से हमारे चरित्रनायकजी ने नौवर्षों के बाद वि० सं० १९७२ में औसियाँ तीर्थ पर पधारे और परम योगिराज शान्तिमूर्ति मुनि श्रीरत्नविजयजी महाराज ? के चरण कमलों में पुनः जैनधर्म में दीक्षित होगए ।
न तो साधुओं के ठिकाना है और न
१ आप श्रीमान ने भी १८ वर्ष तक पहिले स्थानकवासी सम्प्रदाय में रह कर सत्य का संशोधन कर शास्त्र विशारद जैनाचार्य श्री विजयधर्मसरिजी के पास जैन दीक्षा स्वीकार की थी ।
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