________________
३१६
मू० पू० वि० प्रश्नोतर मूर्ति-पूजा भी चरित्राऽनुवाद के आधार पर ही की जाती है। क्यों यह ठीक है न ? ____उ--नहीं, मूर्ति-पूजा के लिए तो जैसे चरित्राऽनुवाद है, वैसे विधि-वाद भी है। देखो, महानिशीथसूत्र में मन्दिर बनवाने वाले को बारहवाँ स्वर्ग मिलना बतलाया है और प्रभु-प्रतिमा की
आठ प्रकार से पूजा करना लिखा है तथा सत्रह प्रकार की पूजा का विधान रोजप्रश्नी-सूत्र में बताया है । प्रमाद के वश होकर साधु हमेशां मन्दिर न जाय तो उसके लिए छट्ट का प्रायश्चित का विधान भी महाकल्पादि सूत्रों में वर्णित है और ये सब के सब विधि-वाद के द्योतक हैं।
प्र०-पर महानिशीथसूत्र और महाकल्पसूत्र तो ३२ बत्तीस सूत्रों में नहीं हैं इसलिए हम इन्हें प्रामाणिक नहीं मानते हैं।
उ०-- आप नहीं मानें तो क्या हुआ, क्या अखिल शासन का अधिकार आप पर ही अवलंबित है। यों तो दिगम्बर कहते हैं कि हम वस्त्र रखने वालों को साधु ही नहीं मानते हैं, और तेरहपन्थी कहते हैं कि जीव वचाने का उपदेश देनेवाले को हम साधु नहीं मानते हैं तो आप क्या इनका कथन भी सत्य मानोगे ?
प्र०-नहीं इनका कहना बिल्कुल मिथ्या है।
उ-तो फिर आपका कहना भी कौन सत्य मानेगा ? हमारे लिए तो आप भी इन्हीं की कोटि में ही हैं। क्योंकि दिगम्बरशास्त्र ही नहीं मानते हैं तब श्राप ३२ सूत्र वे भी मूलपाठ मानने का श्राग्रह करते हो । तो क्या ऐसे तूटे हुए एक एक अंग पर अखिलशासन क आधार समझा जा सकता है ? कदापि नहीं। मिसाल है कि
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org