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________________ ७५ जिन प्रतिमा का शरणा इससे भी अरिहंतों के चैत्य का शरणा तो वैसा का वैसा रह गया अर्थात् छदमस्थ अरिहंत को तो अरिहंत ही कहते हैं इनका शरणा अलग नहीं कहा जाता है यदि छदमस्थ अरिहंत को अरिहन्तों से अलग समझोगे तो आपको कई अरिहन्तों की कल्पना करनी होगी कारण जैसे चवन अरिहन्त, जन्म अरिहन्त, राजअरिहंतादि हमारे स्थानकवासी भाई यह सवाल कर उठते हैं कि मूर्ति तो पाषाणकी होती है उसका क्या तो शरणा ले और क्या मूर्ति शरणा लेने वाला का बचात्र ही कर सके ? आपको यह तो भली भाँति मालूम होगा कि मूर्ति का कितना जबर्दस्त प्रभाव है | किसी राजा महाराज या सर्व भौम्य सम्राट् की मूर्तिको देखिये उसके शरणा या आसातना का कैसा प्रभाव पड़ता है ? दूर क्यों जावें आप खुद भैरू वगैरह की मूर्ति को पूठ देकर नहीं बैठते हो किसी प्रकार की बेअदबी नहीं करते हो और आपके सब साधु साध्वियों प्रतिदिन दो वक्त प्रतिक्रमण करते समय कहते हैं कि "देवाणं असायाएं दविणं असायरणाए" इसको जरा सोचो एवं समझो कि उन देव देत्रि की पाषाणमय मूर्तियों स्थानकमार्गी विद्वान भी मानते हैं कि नमिराजर्षि आदि प्रत्येक बुद्धि चूड़ि बेलादि के निमित से उनको प्रतिबोध हुआ जैसे कि वे कहते हैं । "धन्य गौके पूत । तू ने मुझे अच्छा उपदेश दिया ।" << 'व्यावर गुरुकुल जैन शिक्षाभाग तीज पृष्ठ ४८ अब समझना चाहिये कि बैल से प्रतिबोध होने पर उसको उपदेशकसमझा जाय चूडिकों उपदेशक माना जाय तो मूर्ति तो तीर्थकरों के तदाकार की है उसमें कितना प्रभाव कितना असर ? उनको क्यों नहीं माना जाय । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003204
Book TitleMurtipooja ka Prachin Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundarvijay
PublisherRatna Prabhakar Gyan Pushpmala
Publication Year1936
Total Pages576
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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