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प्रकरण चतुर्थ
की प्रासातना की हो तो मिच्छमि दुक्कडं स्वयं आपको देना पड़ता है जब मर्ति की आसातना का इतना बड़ा पाप है तो उसकी भक्ति का पुन्य होना तो स्वतः सिद्ध है इसमें सवाल ही क्या हो सकता है।
विद्यमान मनुष्यों के तो मति एवं श्रुति ये दोनों ज्ञान भी निर्मल नहीं हैं पर मति श्रुति और अवधि एवं तीन ज्ञानवाले इन्द्र महाराज अरिहंतों की मूर्ति की आसातना को खास अरिहंतो की ही आसा. तना समझते हैं । देखिये-शक्रेन्द्र ने चमरेन्द्र के लिये बज्र फेंका था पर बाद उसने विचार किया कि चमरंन्द्र खुद की तो इतनी ताकत नहीं है कि वह किसी के शरणा विना यहाँ आ सके ? यदि अरिहंत, अरिहंत के चैत्य (मन्दिर मूर्ति) और भावितात्मीय अनगार के शरणा लेकर आया होगा तो मैंने वज्र फेंक के बड़ा भारी अनर्थ किया है जैसे कि
"तं महादुक्खं खल तहारूवाणं अरिहंताणं भगवंताणं अणगाराणंय अच्चासायणाए"
सुज्ञ पाठक विचार कर सकते हैं कि शरणा कहा तीन और अाशातना कही दो इसका क्या अर्थ हो सकता है अर्थात् इसका यही स्पष्ट अर्थ होता है कि अरिहंतों के चैत्य ( मन्दिर मूर्ति) की आशातना करना अरिहंतों की ही आशातना है इसलिये आशातना दो ही कही । इस प्रमाणों से यह सिद्ध हो जाता है कि जैसे अरिहंतों का शरणा ले कर चमरेन्द्र उवलोक में जाता है इसी भाँति अरिहंतों की मूर्तिका शरणा लेकर भी जा सकता है सूत्रों में ऐसा उत्पात की घटना अनंतकाल से होना बतलायी है तो अनंतकाल पूर्व भी जैनमूर्तियाँ विद्यमान थीं। इस कथन
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