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योरोप में जैनमूर्चियाँ
वहाँ भी जैन-धर्म के उपासक अपरिमित संख्या में थे जिन्होंने जैन-धर्म के प्रचारार्थ तथा उसके चिरस्मरणार्थ उन प्रदेशों में भी अनेक जिनालय बनाए। कालचक्र की कुटिल गति से आज वहाँ के निवासी भले ही जैन-धर्म की आराधना नहीं करते हों ? परन्तु पूर्व जमाना के प्राचीन स्मारक अब भी वहाँ उपलब्ध होकर अपने भव्यभूत का परिचय देते हैं। पुरातत्त्वज्ञ विद्वद् वर्ग का एकान्त निश्चित मत है कि किसी जमाने में यूरोप में भी जैन-धर्म का काफी प्रचार था। उदाहरणार्थ लीजिये।
१-श्राष्ट्रिया प्रदेश के हंगरी प्रान्त के बुदापेस्ट प्रामके एक किसान को भूमि खोदते हुए भूगर्भ से भगवान महावीर की मूर्ति प्राप्त हुई है । और यह मूर्ति प्रायः महाराजा चन्द्रगुप्त या सम्राट सम्प्रति के समय की बतलाई जा रही है। जैन-धर्म का लिखित ऐतिहासिक साहित्य इस बात को और भी पुष्ट करता है क्योंकि उसमें स्पष्ट उल्लेख है कि महाराजा श्रोणिक और चन्द्रगुप्तादि ने भारत के बाहिर प्रदेशों में भी जैन-धर्म का प्रचुर प्रचार किया था। महाराजा श्रोणिक के पुत्र अभयकुमार ने अनार्यदेश एवं आर्द्रकपुर नगर के राजकुमार आर्द्रकुमार के लिए भगवान् ऋषभदेव की मूर्ति भेजी थी। उस मर्ति के दर्शन से उस कुमार को बोधिलाभ हुआ और उसने भगवान महावीर के पास दीक्षा लेकर मोक्ष प्राप्त किया। उपर्युक्त कथन में हम किसी प्रकार की शंका नहीं कर सकते क्योंकि महाराजा चेटक, श्रोणिक उदायन और कुणिक के समय जैनों में मूर्तिपजा का पर्याप्त प्रचार था जिसे हम गत प्रकरणों में सिद्ध कर आये हैं। प्राष्ट्रिया में खुदाई करने से और भी जैन मूर्तिएं मिली है इस
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