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प्रकरण चतुर्थ प्रतिमाओं की वन्दन की हो तोरूचक द्वीप और मानुषोत्तर पर्वत पर भी 'चेइयाइं वंदई' का पाठ है और वहां पर न तो सिद्धायतन (जिन मन्दिर ) और न जिनप्रतिमा ही कहो है तो फिर कैसे माना जाय कि चारण मुनियों ने चैत्य ( जिन बिंब) को वन्दन किया था ?
यह सवाल पहिले तो आपके पूर्वज लौंकागच्छीयों से करे कि आपने चेहयाई का अर्थ जिनबिंध किस आधार से मान लिया और जिन बिंब को आप क्यों वन्दन करते हो? इसका उत्तर जिस प्रकार वे जैन शास्त्रों द्वारा समझे है उसी प्रकार श्राप कों समझा कर समाधान कर देगा क्यों कि पहले तो वे लोग भी
आपकी भांति इन बातों को मानने से इनकार ही करते थे पर बाद में उन्होंने जैनशास्त्रों का खुब बारीकी से अवलोकन किया और इस बात को स्वीकार की है जैनागमों में इस विषय के उल्लेख निम्नांकित हैं।
"चउसुवि एसयारेस, इक्कीकं नरनगमि चतारि । कुडोवरि जिणभवणा, कुलगिरि जिणभवण परिमाणा। तत्तो दुगुण पमाणं च उदारा युत्त वणि या सुरुवा । नँदीसर वावरणा चउ कुंडले रूपगे चतारी ॥
द्वीपसागर पण्णतिसूत्र भावार्थ चार इक्षुकार पर्वत पर, और मानुषोत्तर पर्वत पर, चार कूट पर चार जिनमन्दिर हैं वे कुलगिरि के जिनभुवन के प्रमाण वाले हैं और इन से दुगुण प्रमाण वाले तथा चार द्वार संयुक्त विस्तृतवर्णित और स्वरूपवाले ५२ जिनमन्दिर नन्दी.
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