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प्रकरण पहिला
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हुई है उसमें लौंकाशाह के बारे में यों लिखा है कि यतियों द्वारा लौंकाशाह का अपमान हुआ, और जिस समय लौकाशाह क्रोध में आकर बाजार में बैठा था, उस समयः
'एतली तिहाँ गुजरतिा शैयद लेखक मित्र मिल्यो ते पण म्लेच्छ फारसी ना हिरफड़ वरख लिखई ते पण कया । सा० लुंका ! लेखक ए तुम्हारड़ कपाली क्या लगा है । लुंको कहि मन्दिर का थंभा (तिलक) लगा । ते सांभली म्लेच्छ कहइ तुम्हारे जे फकीर दुनियां छोड़ि के हुए सो साहिब की बन्दगी करइ ? कै साहिब क हुजूर भुक्ति मांई बैठा है ? अल्ला अनन्त ते जय अखण्ड हेइ, असत्य नापा की से दूर हुई ते म्लच्छ ना वचन मांभली सा० लौका ने म्लेच्छ धर्म प्यारो लाग्यो तण शैयद पीर हाजी नी आम्नाय दीधु ।"
इनके अलवा पं० खुशाल विजय गणि कृत भाषा पट्टावलि जो वि० सं० १८८९ जेठ शुद्ध १३ शुक्रवार को सिरोही में रहकर १४ पानों में लिखी हुई है उसमें लौंकाशाह के विषय में यही लिखा हुआ है कि:
लौंकाशाह लिखाई करता था और उसकी लिखाई के १७॥ दोकड़ों शेष रह जाने के कारण तकरार हुई। लोकाशाह जिस समय आवेश-गुस्सा में था उसी समय शैयद लिखारा का संयोग मिला और उसका लौकाशाह पर प्रभाव पड़ा इसी कारण लौकाशाह ने जैनयतियों, उपाश्रय, मन्दिर और जैन
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