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मूर्तिपूजा की प्राचीनता धर्म की मुख्य क्रियाओं से खिलाप होकर अपना नया मत निकाला इत्यादि ।
आवेश में अन्ध बना हुआ मनुष्य क्या-क्या अकृत्य नहीं करता है ? क्या जमाली ने भगवान् को झूठा नहीं बतलाया था ? क्या गोसाला ने भगवान को उपसर्ग नहीं किया ? यदि हाँ! तो फिर लौंकाशाह भी उसी क्रोधावेश में श्राकर मुसलमान शैयद के वचनों पर विश्वास कर अपने धर्म से पतित बन गया हो तो इसमें असंभव ही क्या है ? क्योंकि "गहना कर्मणो. गतिः" के अनुसार कमंगति बड़ी गहन है। ___ इस उद्धरण से यह तो निःसन्देह स्पष्ट हो जाता है कि लौकाशाह परमात्मा की हमेशा पूजा करते थे, क्योंकि तभी तो शैयद ने पूछा कि तुम्हारे कपाल पर क्या लगा है और लौंकाशाह ने उत्तर दिया कि मंदिर का थंभा (तिलक ) है । लौकागच्छीय यति भानुचंद्रजी की चौपाई से भी यही पाया जाता है कि लोकाशाह त्रिकाल प्रभु पूजा करते थे, परन्तु जिस समय लौकाशाह यतियों द्वारा अपमानित हुए, उस समय श्राप बड़े हो क्रोधित थे, और तत्क्षण ही शैयद ने आकर, उसे पूछ-ताछ कर जलती हुई अग्नि में घृत डालने का काम किया। शैयद ने लौकाशाह को कहा कि साहब तो मुक्ति में है अर्थात् उनके लिए मन्दिर मतियों की जरूरत ही क्या है ? और जब मन्दिर मर्तियों की कोई जरूरत ही नहीं तो फिर पूजा करना, तिलक लगाना आदि की क्या आवश्यकता है ? दूसरा शैयद ने कहा कि ईश्वर तो नापाकी से दूर है, अर्थात् इसका भाव यों
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