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प्रकरण पहिला
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समझाया होगा कि जब ईश्वर नापाकी से दूर है तब उसको स्नान कराने, पुष्प चढ़ाने आदि की क्या जरूरत है ? “क्रोध हतात्म बुद्धि" लौंकाशाहको यदि यह बात सोलह आना सच जँच गई हो तो कोई विशेषता नहीं ? क्योंकि जैसे कडु आशाह को जँच गई कि इस समय न तो कोई साधु ही है; और न साधुपना पालने योग्य शरीर ही है। धर्मसिंहजी को जँच गई कि श्रावक के सामायिक आठ कोटि से होते हैं । लवजी के जँच गई कि डोरा डाल, दिन भर मुँहपती बाँधने से हिंसा नहीं होती है। भीखमजी के जँच गई कि हमारे सिवाय किसी को भी दान देना एकान्त पाप है, तथा कोई जीव किसी अन्य जीव को मारता हो तो उस मरते हुए जीव को बचाने में अठारह पाप लगते हैं । इत्यादि" मिध्यात्व का उदय होने पर ऐसी बुरी बातें भी मनुष्यों के हृदय में स्थिर स्थान जमा लेती हैं । किन्तु दुःख तो इस बात का है कि अज्ञानियों के हृदय में ऐसी बुरी बातें जम जाने पर, अनेक युक्ति, शास्त्र, इतिहास प्रमाणों से भी पीछी उखड़नी कठिन हो जाती हैं। इसी कारण ज्ञानियों ने ही अनेक नये पन्थ और मत निकाल - निकाल कर -शासन को छिन्न-भिन्न कर डाला है ।
आदि के
यदि लोकाशाह पर शैयद का प्रभाव नहीं पड़ा, ऐसा कहें तो फिर त्रिकाल पूजा करने वाला लौकाशाह एकदम मन्दिर मूर्तियों के खिलाफ कैसे हो गया ? और यह इनसे जब खिलाफ हुआ है तो यह मानना जरूरी है कि लौकाशाह पर शैयद का प्रभाव अवश्य पड़ा था । इसकी पुष्टि में खास लौंका - गच्छीय यति केशवजी लौंकामत के “शिलोका" में स्पष्ट बताते
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