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मू० पू० वि० प्रश्नोत्तर
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मान दीखतो हो तो क्या हर्ज है ? क्योंकि आरजियोंजी महाराज भी जब रवाना होते हैं तब इसी तरह शोभायमान दिखते हैं ।
उ.---श्राग्रह के वशीभूत हो जाते हैं उनके लिये हर्जा और हांसी कोई वस्तु ही नहीं है पर किसी मध्यस्थ पुरुषसे पुच्छे कि हमारे श्रारजियां, हाथ में पूंजणी (ओघा) और मुँहपर मुँहपत्ती बान्धकर विहार करता हैं वे कैसे शोभायमान दीख पड़ती हैं ? तब ही आपको मालूम होगा कि जैनमुनियों का वेश देवताओं को भी वल्लभथा पर कुलिंग धारण करने से आज मनुष्यों एवं पशुभों को भी अरूची का कारण हो रहा है । खैर प्राजियों की बात छोड़ो, क्योंकि वे लोक व्यवहार को छोड़ दिया अतएव उनके लिये कुछ नहीं कहना है पर सुभद्रा तो गृहस्थ थी क्या गृहस्थों का ऐसा व्यवहार किसी सिद्धान्त व इतिहास में आपने देखा है ? यदि सुभद्रा को सुशोभित करना ही पूज्यजी का उद्देश्य है तो सुभद्रा के लिए इस लेख के लिखने में पूज्यजी महाराज का हृदय कुछ संकीर्ण मालूम होता है अन्यथा डोरा सहित मुंहपत्ती लिखी वहाँ पर मुँहपत्ती पर कुछ सजमा सतारा और मोतियों का काम किया हुश्रा लिख देते तो सुभद्रा की शोभा और भी बढ़ जाती। पर शायद पूज्यजी महाराज ने पीछे होने वाले सुधारकों और टीकाकारों के लिए इतनी जगह रख छोड़ी होगी नहीं तो वे विचारे फिर पूज्यजी से अधिक क्या लिख सकेंगे ?
प्र०-क्या मुंहपत्ती पर सलमा-सितारा या मोतियों का काम भी हो सकता है ?
उ०-क्यों नहीं-शोभायमान तो तभी हो सकती है । खैर ! पर आपने पूज्यजी महाराज से यह भी तो निर्णय कर लिया
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