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प्रकरण पांचा
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दृष्टि से देखने वाला मुसलमान मसजिद की पवित्रता में विश्वास करता है और उसकी ओट में अहंकार की पूजा करने के लिए प्राणों की बाजी लगाने में उतारू हो जाता है । इसी प्रकार दोनों में से यदि अहंकार भाव की पूजा निकल भी जाय तो भी मर्ति के अपमान की तरह मसजिद का अपमान दिल को अवश्य चोट पहुंचायगा । क्योंकि मूर्ति पूजकों के समान अमूर्तिकों के पास भी ह्रदय है और हृदय सदैव मूर्तिपूजक ही होता है । मूर्ति के हटाने पर बड़ी बड़ी मसजिदें और कबरें मूर्तियें बन जाती हैं।
सस्य सन्देश पाक्षिक वर्ष ११ अंक १५ पृष्ठ० ३७० - इससे पाठक स्वतः समझ गये होंगे कि मुसलमान लोग भी
मूर्ति पूजक ही हैं + + ..२-इससे आगे मूर्ति नहीं मानने वालों में दूसरा नम्बर क्रिश्चियन लोगों का है। उनमें रोमन केथोलिक तो मर्तिपूजा को मानते हैं पर प्रोटेस्टेण्ट मुंह से मूर्ति का इन्कार करते हैं इन प्रोटेस्टेण्टों की संख्या १८ करोड़ कही जाती है परंतु मूर्ति बिना इनका भी काम नहीं चलता है. वे लोग भी प्रकरांतर से मूर्ति पूजक ही है । क्योंकि ईशू क्राइष्ट को जिन दुश्मनों ने शूली पर चढ़ाया था, क्रिश्चियन लोग उसी शुली पर लटकती ईसामसीह की प्राकृति को बड़े आदर से देखते हैं। जेरूसलम इन लोगों का बड़ा ही पवित्र यात्राधाम है, वहां हजारों क्रिश्चियन योत्रार्थ आते हैं और वे लोग गले में क्रॉस लटकाया रखते हैं और उसका भक्तिभाव पूर्वक चुम्बन करते हैं। क्या यह मर्ति पूजा नहीं है ? हमारी समझ में तो अपने किसी श्रद्धेय की स्मृति में कोई चिन्ह बना उसके प्रति पज्य भाव रखना ही मर्तिपूजा है।
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