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________________ ( ३ ) क्यों करते हैं ? यह तो आपको ही ज्ञात है कि यदि बड़ी दुकान में खर्चा अधिक है तो लाभ भी अधिकाधिक ही होता है । और छोटी दुकान में थोड़ा खर्चा होता है तो लाभ भी उतने ही प्रमाण में होता है । पर व्यवहारिक दृष्टि से तो दोनों समाज एक कोटि के ही व्यापारी कहे जा सकते हैं। फिर हमको आरंभी और आप मूर्तिपूजक होते हुए भी अनारंभी कहना यह किस अदालत का इन्साफ है ? जरा हृदय पर हाथ रख कर सोचो एवं समझो स्था० - श्रजी आरंभ की बात नहीं है, परन्तु श्राप तो मूर्ति को परमेश्वर समझकर पूजा करते हैं । मूर्ति० – जब आप अपने पूज्य पुरुषों के चित्रों को देखते हो का उस समय इन्हें क्या समझते हो ? WA - स्था०-हम हमारे पूज्यादि के चित्रों को हमारे पूज्यादि नहीं समझते हैं वे तो रंग या स्याही से रंगित कागज के टुकड़े हैं। - मूर्ति० - यदि उन चित्रों को स्याही से रंगित कागज ही समझते हो तो फिर हज़ारो रुपये खर्च कर, छः काया के जीवों का श्रारंभ कर उसे बनाने का इतना कष्ट क्यों किया जाता है ? उसे पैरों के तले न डाल कर, सुन्दर मकान में लटका कर इतना सरकार क्यों किया जाता है ? और उसी चित्र की कोई बे दबी करता है तो श्राप नाराज क्यों होते हैं ? - स्था० - नहीं जी, हमतो नाराज नही होते हैं । - - मूर्ति० - आपने तो अपने हृदय को बड़ा ही कठोर बना लिया मालूम होता है यदि मुसलमानों की मसजिद के चित्र का कोई अपमान करता है तो उसे कोई भी मुसलमान सहन नहीं कर सकता है पर आप तो उनसे भी आगे बढ़ गये हैं। बलिहारी है आपके गुरु भक्ति की । परन्तु शायद् यह तो आपके कहने मात्र Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003204
Book TitleMurtipooja ka Prachin Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundarvijay
PublisherRatna Prabhakar Gyan Pushpmala
Publication Year1936
Total Pages576
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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