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________________ - अकरण पांचाँ १५० विशेषता तो यह है कि जब वीरात् ८४ वर्ष बाद के इस शिलालेख से मूर्तिपूजा सिद्ध है और उस समय चतुर्दश पूर्वधर आचार्य विद्यमान थे और उस समय से लगा कर २००० वर्षों सक तो किसी ने भी मूर्तिपूजा का विरोध नहीं किया अपितु मूर्तिपूजा को ही परिपुष्ट किया, फिर २००० वर्षों के बाद कुछ अज्ञ लोगों ने मूर्ति का विरोध क्यों किया, यह समझ में नहीं आता है । फिर भी इस बारे में हमने जो कुछ लिखा है वह पाठक हमारी लिखी "लौंकाशाह के जीवन पर ऐतिहासिक प्रकाश", नामक पुस्तक में विस्तार से देखें। कलिङ्गपति महामेघवाहन चक्रवर्ती महाराजा स्वारवेल के उस प्राचीन शिलालेख से तो भगवान् महावीर के समय में ही मूर्तिपूजा प्रमाणित हो जाती है, और इस विषय के और भी अनेक प्रमाण हमें प्राप्त हैं, किन्तु ग्रन्थ बढ जाने के भय से वे सर्वप्रमाण न देकर उनमें से कतिपय प्रमाण पाठकों के अवलोकनार्थ हम यहाँ दे देते हैं। जिन से यह सिद्ध होगा कि मर्तिपूजा कितनी प्राचीन है देखिये: (५) दशपुर नगर के इतिहास में एक जगह उल्लेख मिलता है कि "वीत भय पाटण" के महाराजा उदाई की पट्टाशी प्रभावती के अन्तःपुर गृह (जनाना) में भगवान महावीर की मति घर देरासर में थी, राजा और राणी हमेशां उनकी त्रिकाल पूजा करते थे, जब राणी प्रभावती ने दीक्षा ग्रहण की तब उस मूर्ति की सेवापूजा, महारानी प्रभावती की दासी सुवर्णगुलिका करती थी। इधर उज्जैन नगरी का राजा घण्डप्रद्योतन ने सुवर्णगुलिका Jain Education International For Private & Personal Use Only ___www.jainelibrary.org
SR No.003204
Book TitleMurtipooja ka Prachin Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundarvijay
PublisherRatna Prabhakar Gyan Pushpmala
Publication Year1936
Total Pages576
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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