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चारण मुनियों की तीर्थ यात्रा
बिवाते वादे सिंहांना चैत्यवंदीने | वाद करे वहां से दूसरे उत्पात बीजा उत्पाते करीने पंडकवन समो में पंडग वन में समवसरणकरे सरण करे पंडकवने समोसरण करी । वहाँ पर भी ज्ञानी के ज्ञान का ने तिहाँना चैत्य जिनबिंबते वांदे गुणानुवाद करे और वहां से भो तिहां चैत्य प्रते वांदीने तिहां थकी पीच्छा अपने स्थान आवे * अहो पाछावले तिहाथकी पाछावली ने गोतम । विद्याचारण का उर्ध्व यहां (स्वस्थाने) आवे इहां आवी ने
गमन का इतना विषय कहा है। यहां ना चैत्य-जिनबिब वांदे हे गोतम । विद्याचारण नो उच्ची
* ऋषिजी ने मूल पाठ होने एतली गति नो विषै प्ररूप्यो।
पर भी अर्थ करना छोड दिया
है जो यहां आकर भी अशाश्वते श्रीभगवती सूत्र २०-६ पृष्ट १५००
चैत्य को वन्दन करते हैं
श्रीभगवती सूत्र २०-६ पृष्ट २४८६. पूर्वोक्त विद्याचारण मुनि के अधिकारके मूलपाठ में चेहयाई बन्दई है जिसका अर्थ टीकाकार चैत्यवन्दन, टव्वाकार चैत्य-जिनबिम्ब (प्रतिमा) वंदन कहा है तब ऋषिजी अपनी मत कल्पना से 'चेहयाई वंदई का अर्थ ज्ञानी का गुणानुवाद किया है। चैत्य शब्द का यहां पर वास्तव अर्थ क्या होता है वह हम आगे चलकर बतलावेंगे । ऋषिजी को इतने से ही संतोष कहां है ? आपने तो मूल पाठ का अर्थ करना ही छोड़ दिया देखो मूल पाठ में "इह चेइयाई बंदड़" इस पाठ का अर्थ तक भी नहीं किया है। शायद् ऋषिजी को यह तो इरादा न हो कि नन्दनवन और पांडक बन में तो जैन मन्दिर मूर्तियों का होना शास्त्र स्वीकार करते हैं जो आगे चल कर ऋषिजी का अनुवाद बतलाया जायगा परन्तु चारणमुनि यहाँ आकर चैत्यवन्दन किया इससे तो यहाँ के अशाश्वत मन्दिर मूर्तियों
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