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प्रकर
प्रकरण चतुर्थ सिद्ध हो जाती हैं परन्तु ऐसे पाठों का अर्थ नहीं करने से ऋषिजी के अभीष्ट की सिद्धि नहीं होती है कारण अब जनता इतनी अज्ञान नहीं है कि मूलपाठमें जिसका उल्लेख है और अर्थ करने वाले उस अर्थ को छोड़ दें और दुनिया उसको मान ले ? कदापि नहीं । खैर आगे जंघाचारण मुनि की यात्रा के लिये भी ऋषिजी के अनुवाद को जरा ध्यान लगाकर पढ़ लीजिये
"जंघाचारणस्सणं भंते । तिरियं केवइए गई विसए पएणते ? गोयमा । सेणं इनो एगेणं उप्पारणं रुयगवरेदीवे समोसरण करेड़ २ ता तिहिं चेहयाई वंदइ वंदइता तो पडिणियत्तमाणा बितिएणं उप्पारणं णंदीसरवरदीवे समसरण करइ २ ता तहिं चेइयाई वंदइ वंदइता इहं हव्वमगच्छइ २ ता इहं चेइयाई वंदइ जंघाचारणस्सणं गोयमा । तिरियं गइ विसए परणत।" लौका० वि० सं० शो० टव्बा । स्था. साधु अमोल. हि. अनु.
जंघाचारणनी हे भगवान् । अहो भगवान् । जंघाचारण तीछी केटली गति विषय प्ररूप्पो ? | का तीळ कितना विषय कहा हे गौतम तेह इहाथकी एके उत्पाते | है ? अहो गोतम। वह एक करी रूचकवर नामे द्वीप ने विष उत्पात से तेरहवा रुचकवर द्वीप समोसरण करे २ करीने तिहां चैत्य में समवसरण करे वहाँ ज्ञानी के प्रतेवांदे चैत्य प्रतेवांदी ने तिहाथकी ज्ञान का गुणानुवाद करे वहां से पाछावले बलीने वीजा उत्पात करी पिच्छे आते दूसरा उत्पात में नन्दीश्वरद्वीप ने विष समोसरण आठवां नंदीश्वरवर द्वीप में करे करीने तिहाँना चैत्यप्रते वांदे । आवे वहाँ समवसरण करके तिहाँ चैत्य प्रतेवांदी ने यहाँ पाछा | ज्ञानी के ज्ञान का गुणानुवाद
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