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________________ प्रकरण चतुर्थ ९. - अन्न जल तक भी नहीं लेते हैं। इसी प्रकार जैनागमों में स्थान स्थान श्रावकों के लिये मूर्ति पूजा के उल्लेख हैं परन्तु ग्रन्थ बढ़ जाने के भय से यहाँ इतना ही लिख आगेहम मुनियों की तीर्थयात्रा के कतिपय प्रमाण बतला देना चाहते हैं -यों तो बहुत मुनियों को यात्रा का उल्लेख है पर हमारे स्थानकवासी समाज खास ३२ सूत्र और वह भी मूलपाठ मानने का आग्रह करते हैं इस लिए यहां हम भी ३२ सूत्रों के मूलपाठ और लौकागच्छीय तथा स्थान कवसियों के किए हुए माषानुबाद के प्रमाण देकर इस बात को प्रमाणित कर बतलावेंगे कि जैन मुनियों के तीर्थ यात्रा करने से कमशः आत्मा का विकास होता है, देखिये "विद्याचारणस्सणं भंते । उहूं केवइए गइ विसए परणते गोयमा । सेणं इत्रो एगेणं उप्पाएणं णंदणवणे समोसरण करई २ ताहि चइयाई बंदड़ वंदड़ता वितिएणं उप्पारणं पंडगवणे समोसरण करइ २ ता तहिं चेइयाई बंदड़ वंदड़ता तो पडिणिवत्तइ २ ता इह माघच्छइ २ ता इह चेइयाई वंदई विद्याचारणस्सणं गोयमा । उर्ल्ड एवइयं गइ विसर पएणता।" लोका०वि० सं० शो० टब्वा स्था० साधु अमोल हि० अनु० विद्याचारणनी हे भगवान् । उच्चो हे भगवान् विद्याचारण का उर्ध्व केटलो विषय प्ररूप्यो ? हे गोतम कितना विषय कहा है ? अहो तेह इहां थकीए के उत्पाते करीने गोतम विद्याचारण एक उत्पात नन्दनवनने विषै समोसरण करे में यहां से उड कर मेरु पर्वत के अटलेगिहां विश्राम करे नन्दन बन | नन्दन वन में विश्राम लेवे वहां विश्राम करीने तिहांना चैत्य-जिन | ज्ञानी के ज्ञान का गुणानु Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003204
Book TitleMurtipooja ka Prachin Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundarvijay
PublisherRatna Prabhakar Gyan Pushpmala
Publication Year1936
Total Pages576
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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