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तुंगिया नगरी के श्रावक । पूर्व जमाने में प्रत्येक श्रावक के घर में गृह देरासर ही रहतो था और वे प्रातः समय सबसे पहिला देव पूजा करके बाद में दूसरा काम करते थे इस हालत में तुंगिया नगरी के श्रावकों ने आचार्य श्री को वन्दन करने के पूर्व गृह देव यानि तीर्थंकरों की मूर्ति की पूजा की हो तो यह यथार्थ ही है। - आचार्य अभयदेवसूरि ने इस सूत्र पर वि. सं. ११२० में इस प्रकार टीका करते हुए लिखा है कि
"असहेजे इत्यादि-अविद्यमानं साहाय्यं पर सहायिक अत्यान्त समर्थत्वद्येषां ते असाहाय्या स्तेच दंवादयश्चेति कर्म धारयः अथवा व्यस्तमेव्यवंदं तेन असाहाय्या आपद्यपि देवादि सहायकानपेक्षाः स्वयं कर्म कती स्वयमेव भोक्तव्यः ।"
श्री भगवती सूत्र पाठ १८४ इससे स्पष्ट होजाता है कि तुंगिया नगरी के श्रावक भगवान् के परमभक्त एवं समर्थ होने से वे किसी को भी सहायता नहीं इच्छते थे । यदि कोई आपत्ति भी आ पड़े तो वे अपने किए हुए कर्म समझ कर भोगव लेते थे वे इस बात को स्वयं जैनशाखों द्वारा ठीक समझते थे कि दूसरे तो सब निमित्त मात्र है पर उपादान तो अपनी आत्मा ही है फिर दूसरों की सहायता की जरूरत ही क्या है अतएव तुंगिया नगरी के श्रावक ने तीर्थंकरों को प्रतिमा के अलावा किसी सरागी देवी देवतों की पूजा नहीं करते थे परन्तु आत्म कल्याणकी अभिलाषा रखने वाले वे श्रावक खास तीर्थंकरों की मूर्ति की ही पूजा करते थे इतना ही क्यों पर श्रावकों के तो ऐसे अटल नियम भी होते हैं कि वे बिना तीर्थंकरों की पूजा किये मुंह में
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