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प्रकरण चतुर्थ
१०
प्रन्थ के पृष्ट १२४-१२६ चैत्य का अर्थ प्रतिमा किया हैं । पृष्ट ९०६ पर भी चैत्य का अर्थ प्रतिमा किया है शायद आपका ही अनुकरण ऋषिजी ने किया हो ।
६ - यदि चैत्य का अर्थ ज्ञान करना ही ऋषिजी का अभीष्ट है तो पूर्वोक्त आपही के अनुवाद में चैत्य शब्द आया है वहाँ भी ज्ञान ही करना था कि आपका ज्ञान अधर्म और परिमहमें लम्झ जाता जैसे आपने प्रतिमा के लिये बतलाया है परन्तु आपको तो येनकेन प्रकारेण श्री तीर्थंकरदेवों की प्रतिमा की करनी है निंदा । परन्तु अब वह जमाना नहीं रहा है कि जनता ऐसी अघटित घटनाओं को मानकर अपना हित करने को तैयार हो; दूसरे तो क्या पर अब तो खास स्थानकवासी समाज में भी लोग समझने लग गये हैं देखिये :
- स्थानकवासी समाज के अगण्य विद्वान और शतावधानी मुनिश्री रत्नचन्द्रजीने अपने अर्धमागधी कोश में चैत्यका
क्या
-λ
किया है ।
"अरिहंत चेइया (पुना ) चैत्य अरिहंत सम्बन्धी कोई पण स्मारक चिन्ह "
८ - अरिहन्तों के स्मारक चिन्ह जैनमन्दिर पादुका स्तूप वगैरह ही होते हैं ऋषिजी इससे बढ़के क्या प्रमाण चाहते हैं यदि और भी किसी को शंका हो तो हम प्राचीन प्रमाणों को और भी उद्धृत कर देते हैं ।
९- अनेक (१४४४) प्रन्थों के निर्माणकर्त्ता महाविद्वान श्राचार्य हरिभद्रसूरी जो विक्रम की सातवीं शताब्दी में एक जगत् प्रसिद्ध जैनाचार्य हुए जिनकी विद्वताकी प्रशंसा हमारे मुनि श्री संतवालजीने अपनी 'धर्मप्राण लोकाशाह' की लेखमाला में को है भगवान्
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