________________
४११
क्या ती० मुँ० मुँ० बान्धते थे !
99
टाए रक्खें । हम तो सत्य धर्म के उपासक हैं जिस धर्म में सत्य का प्रभास और उसकी सिद्धि का कोई प्रमाणिक प्रमाण मिल जाता है बस वही धर्म हमारे गले का हार है नहीं तो इस प्रमाण शून्य प्रथा को कौन अपनायेगा ? इस प्रकार के निर्भीक प्रत्युत्तर को सुनकर यदि तुम्हारे में कुछ शक्ति शेष है तो दिखादो ऐसा उत्तर देने वाले अपने भाईयों को कि इसका कोई प्रबल प्रमाण बतलावें कि जिसे देख कर वे निःशंक बन जांय । श्रन्यथा वे " श्रतो भ्रष्टस्ततोभ्रष्टः बन कर कभी वे खुद भ जैन धर्म से हाथ धो बैठेंगे। जैसे लाला लाजपतराय और लाला सागरचन्द जैसे विद्वानों के उदाहरण आपके सामने विद्यमान हैं। ये दोनों विद्वान स्थानकवासी समाज के नेता थे और अपनी समाज की पूर्वोक्त संकीर्णवृत्ति के कारण ही लाला लाजपत - रायतो समाजी और लाला सागरचन्द ने मुसलमान धर्म को स्वीकारकर जैनों को ही नहीं पर हिन्दू समाज को भी बड़ा भारी नुकसान पहुँचाया है । क्या हमारा स्थानकमार्गी समाज अब भी सावधान होगा ? क्या अब भी कुप्रथा को तिलांजली देकर और सनातन जैनधर्म को समझ कर स्थानकमार्गी समाज उस रास्ते पर चलने को कटिबद्ध होगा ?
मुहपत्तिविषयक कई बार शास्त्रार्थ भी हुए, पर स्थानकवासी भाई पराजय हो जाने पर भी अन्य स्थान पर जाकर कह देते हैं कि शास्त्रार्थ में क्या धरा है ? हम करते हैं वह शास्त्रानुसार ही करते हैं । पर जहां ऐसे विषय में सत्ताधारी नरेश या पण्डित मध्यस्थ न हों वहां जय पराजय का सम्पूर्ण निर्णय नहीं हो सकता है । पर एक समय ऐसा अवसर मिल गया कि न्याय
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org