________________
ऐतिहासिक प्रमाण
४१०
1
यति लवजी हुआ । उक्त दोनों व्यक्तियों के पहिले न तो मुंहपत्ती बाँधने वालों का अस्तित्व था और न मूर्ति विरोधियों का अस्तित्व था, किन्तु बाद में ही इनसे यह प्रवृत्ति चली है । ये सब अपने दोष छिपाने के लिए ही तीर्थङ्कर जैसे महापुरुषों के कल्पित चित्र तैयार करवाए गये हैं और इनसे अन्य धर्मियों को हंसाने का तथा जैन शासन को नीचा दिखाने का बड़ा दुःसाहस किया गया है। हम पूछते हैं कि क्या आपकी यह नीति वस्तुतः ठीक है ? यदि नहीं तो इसके लिए ऐसा करने वालों को प्रायश्चित्त करना चाहिये और यह सत्य है तो स्वामी लवजी ( अर्थात् अट्ठारहवीं शताब्दी) के पूर्व का इसका समर्थक कोई प्रमाण पेश करना चाहिए कि जिससे डोरा डाल मुंहपत्ती का मुंहपर बाँधना सिद्ध हो ।
स्थानकमार्गियो ! आपकी मुँहपर मुँहपत्ती बांधने की अनुचित प्रवृत्ति से आज कई लिखे पढ़े स्थानकवासी साधुओं के उपासक लोग, सामायिक पौसह प्रतिक्रमणादि क्रियाओं से वंचित रहते हैं, क्योंकि जब वे इतिहास देखते हैं तो मुँह पर मुँहपत्ती बांधने का कोई उल्लेख नहीं मिलता है तथा खास लौंकाशाह के बाद भी २०० वर्षों तक इसका अस्तित्व नज़र नहीं आता है, एवं जब लौकान्छीय श्रीपूज्यों और यतियां से जाकरके वे पूछते हैं तो उनसे भी कोरा जवाब मिलता है कि लौंकाशाह ने भूल कर भी मुंहपत्ती मुंहपर नहीं बांधी थी, यह प्रथा तो स्वामी लवजी ने चलाई है, तो लिखे पढ़े मेजुयेट बोल उठते हैं कि हम कोई लकीर के फकीर नहीं है कि जो इस अंध परम्परा में विश्वास रख कर इस कुप्रथा को सदा के लिए गले से चिप-
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org