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क्या सी० मु. मुं० बान्धते थे ? से प्रारम्भ हुई जो आज भी उपलब्ध है । बाद में श्वेताम्बर दिगम्बरों का मतभेद हुआ तो उसका भी खण्डन मण्डन उसी वक्त से शुरू होगया। तदन्तर गच्छों का प्रादुर्भाव हुश्रा और उसके अन्दर जो प्रचलित क्रियाओं में रहोबदल हुआ तो उसी समय उनके चर्चा के प्रन्थ बन गये। श्रीमान् लौकाशाह ने जैन सिद्धांत के विरोध में जब अपना उत्पात मचाया तो उसका भी खण्डन मण्डन उसी समय से चल पड़ा, पर भगवान् आदिनाथ एवं महावीर के समय से विक्रम की अठारहवीं शताब्दो अर्थात् स्वामी लवजी के पूर्व समय तक किसी भी साहित्य में मुंहपत्ती विषयक खण्डन-मण्डन दृष्टि गोचर नहीं होता है। यदि पहिले मुंहपत्ती बाँधी जाती थी और बाद में किसी प्राचार्य ने खोल कर हाथ में लेने कीरीति चलायी होती तो उसका भी जरूर विरोध होता और बाँधने वाले तथा खोलने वालों का पारस्परिक खण्डन मण्डन भी चलता, परन्तु जब इसका सर्वथा अभाव है तो फिर कैसे मान लिया जाय कि इस प्रक्रिया में भी रद्दोबद्दल हुआ था। वस्तुस्थिति के देखने से तो यही पता पड़ता है कि सर्व प्रथम तो मुंहपत्तो हाथ में रखने की प्रक्रिया ही जारी थी किन्तु बाद में जब गच्छ एवं गुरु द्वारा तिरस्कृत हुए स्वामि लवजी ने इसके मूल रूप में कुछ भेद डाला ता उसका विरोध भी उस समय हुआ था जो श्राज के प्राप्त प्रमाणों से जाहिर होता है, जैसे कि लौंकाशाह ने सर्व प्रथम मूर्ति का विरोध किया तो उस समय का इतिहास इस बात को डंके की चोट बताता है कि जैनों में मूर्ति विरोधी सबसे पहिला लौकाशाह ही हुआ। और मुँहपती में डोरा बाल दिनभर, मुँहपर बाँधने वाला सब से पहिला
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