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मू० पू० वि० प्रभोत्तर
और तपस्वियों की तपस्या का तेज चारों ओर फैल रहा था। दिन के ११ बजे का जिक्र है कि एक नवयुवक मन्दिर से परमेश्वर की पूजा कर उपाश्रय जा रहा था, रास्ते में एक व्यक्ति ने उस नवयुवकसे कुछ प्रश्न किए और नवयुवक ने उसको समीचीन उत्तर दिए आज वे ही प्रश्नोत्तर । हम विचारज्ञ पुरुषों के मनोविनोदार्थ यहाँ उद्धृत करते हैं । प्रश्नकर्ता का नाम प्रश्नचंद्र और उत्तरदाता का नाम उम्मेदचंद्र था खयाल रहे ]
"प्रकाशक" प्रश्नचंद्र-क्या आप मूर्तिपूजक हैं ? उम्मेदचंद्र-नहीं। प्रश्न-तो फिर आपके कपाल में तिलक क्यों है ? ।
उम्मेद-यह तो जैनी होने का निशान (मार्क) है। क्या आपने नहीं सुना है:
"देवी के टीकी कही, शिव की जांणोपाड़। तीखा तिलक जैनों तणा, विष्णु की दो फाड़ ॥"
प्र०-आप मूर्ति की पूजा तो करते हैं । ': उ-मैं केवल मूर्चि की, पूजा नहीं करता हूँ। क्योंकि यदि मैं मूर्ति ही की पूजा करता तो मूर्ति के सामने यह कहता कि हे मूर्ति! तू अच्छी है, बड़ी सुंदर है, तुम्हारे बनानेमें मैंने इतना द्रव्य व्यय किया । तू कैसे सुंदर चिकने पत्थर की बनी हुई है। इतने लोगों ने तुम्हें इतने समय में किस चतुराई से बनाया है ? इत्यादि, परंतु ये शब्द कोई भी भावुक भक्त मूर्ति के सामने उचारण नहीं करता है अतः मैं केवल मूर्तिका ही पूजक नहीं हूँ।
प्र०-तो फिर आप किस चीज की पूजा करते हैं ? ।
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