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मू० पू० वि० प्रश्नोत्तर
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उ०- यह तो स्थापना है पर प्रभु वीर के पास एक करोड़ देवता होने पर भी समवसरण में दो साधुओं को गोशाला ने कैसे जला दिया था, भला भवितव्यता भी कोई टाल सकता है ? अपने घर में ही देखो ३५ गुणवाले सूत्र चोर चुराके क्यों ले जाते हैं ?
प्र० - कई लोग ऐसी टेरें गाया करते हैं कि
-
"पाळा क्यों आये मुक्ति जाय के जिनराज प्रभुजी ।" क्या आप इसका समाधान कर सकेंगे ?
उ०-
-- टेर को समाधान टेर से करना ही न्याययुक्त है । "पाचा इम आया, निन्हव प्रगट्या है श्रारे पांच में । पा० न हम गये न हम आये, घट घट ज्ञान हमारा । जिनके नाम से रोटी मांगे, उनका नाम बिसारा रे पा. । नमोत्थुणं देकर मुझको, पिच्छा मनुष्य बनावे | नय निक्षेप का भेद न जाने, मन माने जिऊ गावे रे० । पा०
हम लोग तो मूर्त्तियों को तीर्थंकरों का शास्त्रानुसार स्थापना निक्षेप मान के स्थापित करते हैं, पर ऐसा कहनेवाले खुद ही मोक्ष प्राप्त सिद्धों को वापिस बुलाते हैं। देखिये, वे लोग हर वक्त चौवीस्तव करते हैं तो एक "नमोत्थुणं” अरिहन्तों को और दूसरा सिद्धों को देते हैं। सिद्धों के "नमोत्थुणं" में "पुरिस सिंहाणं, पुरिसवरपुडरीयाणं, पुरिसवरगन्वद्दत्थीणं" इत्यादि कहते हैं। पुरुषों में सिंह और वर गन्धहस्ती समान तो जब ही होते हैं कि वे देहधारी हों । इस "नमोत्थुणं" के पाठ से तो वे लोग सिद्धों को पीछा बुलाते हैं, फिर भी तुर्रा यह कि अपनी
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