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मू० पू० वि० प्रश्नोत्तर
भी जैसे - गेहूँ धान्य, बीज रूप गेहूँ से पैदा होता है फिर भी ऋतु, जल, वायु, और भूमि की अपेक्षा रखता है वैसे ही ये दानशील मूर्तिपूजन आदि भी तप, संयमादि साधनों की साथ में आवश्यकता रखते हैं । समझे न ?
प्र० - यदि मूर्तियाँ वीतराग की हैं और वीतराग तो त्यागी थे, फिर उनकी मूर्तियों को भूषणादि से अलंकृत कर उन्हें भोगी क्यों बनाया जाता है ?
उ० – जो सच्चे त्यागी हैं वे दूसरों के बनाये भोगी कभी नहीं बन सकते, यदि बनते हों तो तोर्थंकर समवसरण में रत्न -- खचित सिंहासन पर विराजते हैं पीछे उनके प्रभामण्डल ( तेजोमण्डल ) ऊपर अशोक वृक्ष, शिर पर तीन छत्र और चारों ओर ६४ इंद्र चमरों के फटकारे लगाया करते हैं। आकाश में धर्मचक्र एवं महेन्द्रध्वजा चलती है तथा सुवर्ण कमलों पर वे सदा चलते हैं और ढीच प्रमाणे पुष्पों के ढेर एवं सुगन्धित धूप का धुआँ चतुर्दिश फैलाया जाता है। कृपया कहिये, ये चिन्ह भोगियों के हैं या त्यागियों के, यदि दूसरे की भक्ति से त्यागी भोगी बन जाय तो फिर वे वीतराग कैसे रहें ? असल बात तो यह है कि भावुकात्मा जिनमूर्ति का निमित्त लेकर जन्मावस्था को लक्ष्य में रख पक्षाल राजावस्था के कारण मुकुट कुण्डल हार, जेवर पहनाते हुए भी भक्तों का दृष्टिविन्दु उन वीतराग की भक्ति करने का ही हैं, इससे इनके चित्त की निर्मलता होती है और क्रमशः मोक्षपद की प्राप्ति भी हो सकती है।
प्र० - मन्दिरों में अधिष्ठायक देवों के होते हुए भी मन्दिरों में चोरियें क्यों होती हैं ?
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