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________________ प्रकरण चतुर्थ Le पाटुका ही होता है इससे जो ऋषिजी ने चैत्यका अर्थ कहीं पर छदमस्थ तीर्थकर, कहीं पर साधु, और कहीं पर ज्ञान किया है यह भ्रमरणा एवं कल्पना मात्र ही है और इस मिथ्या अर्थ करने का हेतु विचारे प्रामण्य भद्रिक जनता को भ्रम में डाल अपने पंजों में फाई रखना हो है । शायद ऋषिजी ज्ञानी के गुणानुवाद को चैत्यवन्दन हो समझते हों क्योंकि चैत्यवन्दन में भी उन्हीं ज्ञानी तीर्थकरों के गुणानुवाद ही आते हैं तो यह ठीक भी है विद्याचारण जंबाचारण मुनिवरों ने नन्दनवन पांडकवन नंदीश्वर 'रूचक' मानुषोतर और स्वस्थान जहां से गये थे) के मन्दिरों में जा जाकर चैत्यवन्दन (ज्ञानी तीर्थंकरों का गुणानुवाद) किया था इसमें हमारा मतभेद भी नहीं है और अन्य भाइयों को भी माननेमें किसी प्रकार की आपत्ति नहीं आती है । अतएव यह स्पष्ट सिद्ध है कि जैनधर्मावलम्बी क्या साधु-साध्वी और क्या श्रावक-श्राविका सबको अपने पूज्याराध्यदेवों के मन्दिर मूर्तियों को पूज्य भाव से मानना और यथाधिकार द्रव्य भाव से पूजा कर आत्मकल्याण अवश्य करना चाहिये । यदि कोई सज्जन यह सवाल करें कि यदि चारणमुनि तीर्थयात्रार्थ ही पूर्वोक्त स्थानों में गये थे तो वापिस आने के बाद आलोचना लेना क्यों कहाँ ? उत्तर में यह सवाल तो ज्ञानी के गुणानुवाद के लिये भी ज्यों का त्यों हो सकता है पर इसका तात्पर्य यह है कि साधु १०० कदम के आलोचना अवश्य करनी पडती है फिर थंडिलभूमिका जावे, मन्दिर जावे, गुरु के सामने या पहुंचाने को आगे जाता है उसको चाहे वह गोचरी जावे, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003204
Book TitleMurtipooja ka Prachin Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundarvijay
PublisherRatna Prabhakar Gyan Pushpmala
Publication Year1936
Total Pages576
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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