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________________ ९०३ महासती द्रौपदी की पूजा जावे, उसको वापिस आकर आलोचना अवश्य करनी पड़ती है यदि पालोचना नहीं करे तो आराधिक नहीं हो सकता है। इसी भाँति धारण मुनि करोडों योजन जाकर आवे तो आलोचना करनी ही चाहिए। इसके अलावा जंघा-विद्याचारणों को ऊपर जाते समय नीचे जिनालय और साधु वगैरह पाते हैं उन्हीं के ऊपर से जाना पड़ता है इसी कारण भी यहां आकर वे आलोचना लेते हैं। . परन्तु ऐसी लीचर दलीलें करने में सिवाय समय शक्ति का व्यय के और क्या फायदा है। * अस्तु । अब हम स्वामीजी के अनुवादित श्र' ज्ञातासूत्र की ओर देखते हैं तो आप को अनुवाद करने की योग्यता का हमें पूर्ण परिचय मिल जाता है कारण अर्थ पल्टाने की वृत्ति तो आपके पूर्वजों से ही चली आई है परन्तु आपने तो मूलसूत्रों के पाठके पाठ बदल दिये हैं। एक शताब्दी पूर्व आपके पूर्वज स्वामि जेठमलजी हुए उन्होंने मूर्तिपूजा के विरोध में एक समकितसार नामक ग्रन्थ लिखा जिसमें महासती द्रौपदी की पूजा विषय चर्चा करते हुए श्रीज्ञातासूत्रका मूलपाठ दिया है और श्रीमान् अमोलखपिंजी ने ज्ञातसूत्रका हिन्दी अनुवाद करते समय द्रौपदी की पूजा समय का मूलपाठ दिया है। उन दोनों के मूलपाठ यहाँ पर उद्धत कर हम हमारे पाठकों को यह बतला देना चाहते हैं कि इन मूर्तिपूजा नहीं मानने वालों में कितना ज्ञान और विचार है वह स्वयं समझ लें। . चैत्य शब्द का अर्थ मन्दिर मूर्ति के अलावा और भी होता है पर जहाँ मन्दिर मूत्ति का ही अर्थ होता है वहाँ दूसरा अर्थ करना अनभिज्ञता को ही जाहिर करता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003204
Book TitleMurtipooja ka Prachin Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundarvijay
PublisherRatna Prabhakar Gyan Pushpmala
Publication Year1936
Total Pages576
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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