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________________ २८३ मू०पू० वि० प्रभोत्तर जिन प्रतिमा को वन्दन, पूजन, मोक्ष का कारण समझ के ही किया था। और उत्पातिक सूत्र में अंबड़श्रावक जोर देकर कहता है कि आज पीछे मुझे अरिहन्त और अरिहन्तों की प्रतिमा का वन्दन करना ही कल्पता है। ... प्र०-ज्ञाता सूत्र में २० बीस बोलों का सेवन करना, तीर्थकर गोत्र बाँधना बतलाया है, पर मूर्तिपूजा से तीर्थकर गोत्रबन्ध नहीं कहा है ? ___उ०-कहा तो है, पर आपको समझाने वाला कोई नहीं मिला। ज्ञाता सूत्र के २० बोलों में पहिला बोल अरिहन्तों की भक्ति और दूसरा बोल सिद्धों की भक्ति करने से, तीर्थङ्कर गोत्रीपार्जन करना स्पष्ट लिखा है, अरिहन्त सिद्ध अाज विद्यमान नहीं हैं पर यही भक्ति मन्दिरों में मूर्तियों द्वारा की जाती है। महा. राजा श्रेणिक अरिहन्तों की भक्ति के निमित्त हमेशा १०८ सोने के जौ ( यव ) बनाके मूर्ति के सामने स्वस्तिक किया करता था, और भक्ति में तल्लीन रहने के कारण ही उसने तीर्थङ्कर गोत्र बाँधा । कारण दूसरे तप, संयम, व्रत तो उनके उदय ही नहीं हुए थे, यदि कोई कहे कि श्रेणिक ने जीव दया पाली उससे तीर्थङ्कर गोत्र बँधा, पर यह बात गलत है, कारण जीवदया से साता वेदनीकर्म का बन्ध होना भगवती सूत्र श० ८ उ० ५ में बतलाया है, इसलिए श्रेणिक ने अरिहन्तों एवं सिद्धों की भक्ति करके ही तीर्थङ्कर गोत्रोपार्जन किया था। प्र०-उत्तराध्ययन के २९ वें अध्यायन में ७३ बोलों का फल पूछा है, पर मूर्तिपूजा का फल नहीं पूछा ? ... उ०-चैत्यवन्दन ( मूर्ति-पूजा ) का फल पूछा तो है, परन्तु Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003204
Book TitleMurtipooja ka Prachin Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundarvijay
PublisherRatna Prabhakar Gyan Pushpmala
Publication Year1936
Total Pages576
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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