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________________ २७१ मू० पू० वि० प्रश्नोत्तर उ.- ज्ञाता सूत्र के १६ वें अध्ययन में महासती द्रौपदी ने सतरह प्रकार से पूजा की ऐसा मूलपाठ है । प्र०-द्रोपदी की पूजा हम प्रमाणिक नहीं मानते हैं ? उ०-क्या कारण है ? प्र०-द्रोपदी उस समय मिथ्यत्वावस्था में थी। उ०-मिथ्यात्वावस्था में थी तब उसने घरदेरासर की पूजा कर फिर नगर देरासर की पूजा क्यों की और नमोत्थुणं के पाठ से स्तुति कर यह क्यों कहा कि 'तन्नाणं तारयाणं' क्या मिथ्यात्वी भी इस प्रकार जिनप्रतिमा की १७ भेदी पूजा कर नमोत्थुणं द्वारा यह प्रार्थना कर सकते हैं कि हे प्रभो । आप तरे और मुझ ने तारो ? प्र०-यह तो लग्न प्रसंग में की,पर बाद में पूजा का अधि. कार नहीं आया ? उ०-लग्न जैसे रंगराग के समय भी अपने इष्ट को नहीं भूली तो दूसरे दिनों के लिये तो कहना ही क्या था । धर्मी पुरुषों की परीक्षा ऐसे समय ही होती है । द्रौपदी ने नारद को असंयमी समझके वन्दन नहींकी, पद्मोत्तरके वहाँ रह कर छट्ठतप किया यह सब प्रमाण द्रौपदी को परम धर्मी सम्यग्दृष्टि जाहिर करता है खैर इस चर्चा को रहने दीजिये परन्तु द्रौपदी को आज करीबन ८७००० वर्ष हुए । द्रौपदी के समय जैनमन्दिर और जिनप्रतिमा तो विद्यमान थी और वे मन्दिर मूर्तिएं जैनियों ने अपने आत्म कल्याणार्थ ही बनाई इससे सिद्ध हुआ कि जैनों में मूर्ति का मानना प्राचीन समय से ही चला आया है । द्रौपदी के अधिकार Jain Education International For Private & Personal Use Only ___www.jainelibrary.org
SR No.003204
Book TitleMurtipooja ka Prachin Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundarvijay
PublisherRatna Prabhakar Gyan Pushpmala
Publication Year1936
Total Pages576
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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