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मू० पू० वि० प्रश्नोत्तर
२७२ में मुरियाभदेव का उदाहरण दिया है और राजप्रश्नी सूत्र में सुरियामदेव ने विस्तारपूर्वक पूजा की है। ___प्र०-सुरियाभ तो देवता था उसने जीत आचार से प्रतिमा पूजी उसमें हम धर्म नहीं समझते हैं ? ____उ०--जिसमें केवली-गणधर धर्म समझे और आप कहते हो कि हम धर्म नहीं समझते तो आप पर आधार ही क्या है कि श्राप धर्म नहीं समझे इससे कोई भी धर्म नहीं समझे । पर मैं पूछता हूँ कि सुरियाभदेव में गुणस्थान कौनसा है ?
उ०--सम्यग्दृष्टि देवताओं में चौथा गुणस्थान है । प्र०-केवली में कौनसा गुणस्थान ? उ०-तेरहवाँ चौदहवाँ गुण स्थान ।
प्र०-चौथा गुणस्थान और तेरहवाँ गुणस्थान की श्रद्धा एक है या भिन्न र?
उ०-श्रद्धा तो एक ही है।
प्र०-जब चौथा गुणस्थान वाला प्रभु पूजा कर धर्म माने तब तेरहवाँ गुणस्थान वाला भी धर्म माने फिर आप कहते हो कि हम नहीं मानते क्या ये उत्सूत्र और अधर्म नहीं है ? हम पूछते हैं कि इन्द्रों ने भगवान् का मेरु पर्वत पर अभिषेक महोत्सव किया, हजारों कलश पाणी ढोला, सुरियामादि देवताओं ने पूजा की। इससे उनके भवभ्रमण बढ़े या कम हुए ? पुण्य हुश्रा या पाप हुआ ? यदि भवभ्रमण बढ़ा और पाप हुआ हो तो भगवान ने उनको पूर्वोक्त कार्यों के लिये मना क्यों नहीं किया क्योंकि उन बिचारोंने जो किया वह भगवानके निमित्त से ही किया था फिर भी वे सब एकावतारी कैसे हुए; वे भव और पाप कहाँ
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